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________________ १८० IS US arwww * सेढेक्क १८९ mr m १६० पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध २६ अश्वकर्णकरणकाल, कृष्टिकरणकाल १८१ १६ सढेक्क कर्मप्रकृतिया सत्त्व से कर्म प्रकृतिया उदय और सत्त्व से १८५ ९ निर्गल निर्मल १८६ अन्तरित अन्तरित कहलाता है। १८७ १६ विग्ध च उक्कारण विग्घचउक्काण स्तु विक स्तिबुक १८९ केबलज्ञान अविनश्वरता को केवलज्ञान की अविनश्वरता को १६० प्रमेय प्रानन्त्य प्रमेय मे प्रानन्त्य १९० अतः उनके अत: उनको १९० नानन्त्यपना प्रानन्त्य केवलज्ञान उपचारमात्र से केवलज्ञान मे उपचारमात्र से १६१ आवरक प्रावारक १६१ २१ अनवस्था अनवस्थान १६३ ५ अभाव और अभाव है और १६३ १९ केवलज्ञानरूपी जिसका केवलज्ञानरूपी १९३ २२-२३ और घातिया कर्मों को जीत लेने कहा जाता है अर्थात् क्षय कर देने से जिन कहे जाते हैं सकता सकते १९५ आदि व्यापार स्वाभाविक व्यापार प्रादि स्वाभाविक १६५ १५ पादाम्बुज पादाम्बुजः बघादि बधदि १६७ १४ पाविसिय पविसिय १९७ २१ अवशिष्टकाल; और अयोग अवशिष्ट काल; अयोगी का सर्वकाल और अयोग १९७ २२ सर्वकालका संख्यातवाभाग इन दोनोको काल का संख्यातवा भाग इनको प्रात्मप्रदेशो को कपाटरूप आत्मप्रदेशो को प्रतररूप करता है। द्वितीयसमय में प्रतर समेट कर प्रात्मप्रदेशो को कपाटरूप १९८ २२-२३ गुणश्रेणिशीर्प से उपरिम गुण रिणशीर्ष से वर्तमान गुणश्रेणिशीर्ष नीचे है। किन्तु पूर्व की अपेक्षा असख्यातगुणे प्रदेशाग्र का विन्यास करता है। यह गुणश्रेणी के ११ स्थानो की प्ररूपणा वाले सूत्र से सिद्ध है। गुरणणि शीर्प दे उपरिम
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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