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________________ गाथा १८६ ] क्षपणासार [ १२६ ___ समाधान--ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि परिणामोंके माहात्म्यसे लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिके संक्रमण में भी भागहारमें हानि नहीं हुई है। लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिमें से लोभको द्वित्तीयसंग्रहकृष्टि में सक्रमित होनेवाले प्रदेशानका प्रतिग्रहस्थान लोभको द्वितीयसंग्न हकृष्टि है जो अल्प है और लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टि से लोभको तृतीयसंग्रहकृष्टि में संक्रमित होनेवाले प्रदेशाग्रको प्रतिग्रहस्थान लोभको तृतीयसंग्रहकृष्टि है जो विशेषअधिक है । प्रतिग्रहस्थानमें अधिकता होनेसे उनका विषयभूत संक्रमणद्रव्य भी विशेषअधिक हो जाता है। लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे जितने प्रदेशाग्न लोभको तृतीयकृष्टिमें संक्रमण किये जाते हैं उससे सख्यातगुणे प्रदेशाग्र क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि से मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें सक्रमित किये जाते हैं, क्योंकि लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अपेक्षा क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में प्रदेशाग्रसत्त्व १३ गुणा है। इसलिये प्रदेशसंक्रमण संख्यातगुणा है। उससे क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टि में प्रदेशसंक्रपण विशेषाधिक है, क्योंकि पूर्व प्रतिग्रह स्थानसे क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिरूप-प्रतिग्रहस्थान विशेष अधिक है। अतः प्रदेशसंक्रमण भी विशेष अधिक है । उससे क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि से क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिमें सक्रमण होनेवाले प्रदेशाग्र संख्यातगुणे हैं । यद्यपि प्रतिग्रहस्थानस्वरूप क्रोधकी द्वितीयसग्रहकृष्टि क्रोधको तृतीयसग्रहकृष्टि से अल्प है तथापि वेद्यमान क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे अनन्तर वेद्यमान क्रोधकी द्वितीयसग्रहकृष्टि में सक्रमित होनेयोग्य प्रदेशाग्न संख्यातगुणा है । यह बादरकृष्टिसम्बन्धी प्रदेशाग्र यद्यपि अतिक्रान्त हो चुका है तथापि की जानेवाली सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियों में आश्रयभूत मानकर यहां कहा गया है। लोभकी द्वितीयकृष्टि से जो प्रदेशाग्र लोभको तृतीयसग्रह कृष्टि में संक्रान्त हुए है उनसे संख्यातगुणे प्रदेशाग्र सूक्ष्मकृष्टि रूप होते है ऐसा जो गुणकारका अनुक्रम कहा गया है वह नवीन नहीं है, किन्तु बादरकृष्टियों में भी संख्यात गुणकार का अनुक्रम है यह बतलाने के लिए बादरष्टियोंके प्रदेशसंक्रमणके संक्रमणमे अल्पबहुत्वका कथन किया गया है। १. जयधवल मूल पृष्ठ २२०३ से २२० । २. जयधवल मूल पृष्ठ २२०५-२२०६।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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