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________________ गांथा २८ ] . लब्धिसार [ २३ क्योकि ये चारो पृथक्-पृथक् प्रतिनियत गतिविशेषसे प्रतिबद्ध है इसलिए तदनुसार ही उस-उस आयुकर्मके उदयका नियम देखा जाता है। चारगति, दोशरीर, छहसस्थान और दो अगोपांग ; इनमेसे अन्यतर एक-एक नामकर्म प्रकृतिका उदय होता है। छहसहननोंमे से कदाचित् किसी एक-एकका उदय होता है और कदाचित् उदय नही होता। यदि मनुष्य या तिर्यच प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख है तो किसी एक सहननका 'नियमसे उदय होता है । यदि देव या नारकी प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख है तो किसी भी सहननका उदय नही होता । उद्योतका कदाचित् उदय पाया जाता है; क्योकि पचेन्द्रियतिर्यचोमे किन्हीके उद्योतका उदय होता है। दो विहायोगति, सुभगदुर्भग, सुस्वर-दु स्वर, प्रादेय-अनादेय, यश कीर्ति और अयश कीर्ति इन पाच युगलोमे से किसी एक-एक प्रकृतिका उदय होता है अर्थात् इन पाच युगलोमे से प्रत्येकयुगलकी किसी एक प्रकृतिका उदय होता है । उच्चगोत्र और नीचगोत्र इनमेसे किसी एक प्रकृतिका उदय होता है। यह प्रकृतियोके उदयसम्बन्धी कथन चारोंगतिकी अपेक्षासे है। आदेशकी अपेक्षा चारोगतियोमे जो विशेषता है वह इसप्रकार है-चारो आयुनोमे से जिसगतिमें जो आयु अनुभव की जाती है उस आयुका उसग़तिमे उदय होता है। नरकगति व तिर्यचगतिमे नीचगोत्रका ही उदय है,' मनुष्यगतिमे नीचगोत्र और उच्चगोत्रमेसे एकका उदय है और देवगतिमे उच्चगोत्रका ही उदय है । नामकर्मकी अपेक्षा यदि नारकी है तो नरकगति, पचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डकसंस्थान, वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्ग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अगुभ, दुर्भग, सुभग, अनादेय, अयश कीर्ति और निर्माण ; "नामकर्मकी इन २६ प्रकृतियोका उदय होता है। यदि तिर्सच है तो तिर्यंचगति, पचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर कार्मणशरीर, छह सस्थानोमे से कोई एक सस्थान, औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, छह सहननोमे से कोई एक, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, कदाचित् उद्योत, दो विहायोगतिमे से कोई एक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग-दुर्भगमे से कोई एक, सुस्वर-दु स्वरमे से कोई एक, आदेय-अनादेयमे से कोई एक, यश कीर्ति-अयश कीतिमें से कोई एक और निर्माण । नामकर्मकी इन ३० या ३१ प्रकृतियोका उदय होता है । १. २. ३. ध पु १५ पृ ६१ । .
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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