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२२२ ] लब्धिसार
[ गाथ २८४ आगे संज्वलनलोभ सम्बन्धी कृष्टियोंको निक्षेपणविधि बताते हैंप्रोक्कड्डिदइ गिभागं पल्लासंखेज्जखंड दिगिभागं । देदि सुहुमासु किट्टि फड्डयगे सेस बहुभागं ॥२८४॥
अर्थ-(सज्वलनलोभके द्रव्यको अपकर्षण भागहार द्वारा भाजितकर उसमें से) एक भाग अपकर्षित द्रव्य है । इसको पल्यके असख्यातवेभागसे खण्डितकर उसमे से एक भागको सूक्ष्मकृष्टियोमे देता है, शेष बहुभागको स्पर्धकोमे देता है ।
____ विशेषार्थ-सज्वलनलोभके सर्व सत्त्वरूप द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर उसमे से एक भागप्रमाण द्रव्यको पुन पल्यके असख्यातवेभागका भाग दिया । उसमेसे बहुभागप्रमाण द्रव्यको पृथक् रखकर एक भागप्रमाण द्रव्यको सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणमाता है । “अद्धाणेण सव्वधणे खंडिदे"१ इत्यादि करणसूत्र विधान द्वारा उस एक भागप्रमाण द्रव्यमे कृष्टियोके प्रमाणरूप कृष्ट्यायामका भाग देने से मध्यधनका प्रमाण
आता है । इस मध्यधनको एक कम कृष्टिआयामके आधेसे हीन दो गुणहानिका भाग देने पर चयका प्रमाण प्राप्त होता है । उस चयप्रमाणको दोगुणहानिसे गुणा करने पर आदिवर्गणाके द्रव्यका प्रमाण आता है । इतने द्रव्यको तो प्रथमकृष्टिमे निक्षिप्त करता है जिससे प्रथमकृष्टि उत्पन्न होती है । यह प्रथमकृष्टि प्रथमसमयमें की गईं कृष्टियोमे जघन्यकृष्टि है। तथा इससे द्वितीयादि कृष्टियोमे एक-एक चयप्रमाण हीन द्रव्य निक्षिप्त करता है। इसप्रकार एककम कृष्टिायामप्रमाण चयोसे हीन प्रथमकृष्टिप्रमाण द्रव्यको अन्तिम कृष्टिमे निक्षिप्त करता है । अब इन कृष्टियोमे शक्तिका प्रमाण कहते है
__ पूर्व स्पर्धकोके जघन्यवर्ग में अनुभागके अविभागप्रतिच्छेदोके प्रमाण को कृष्टियायामका जो प्रमाण है उतनीबार अनन्तका भाग देने पर प्राप्त लब्धके बराबर प्रथमकृप्टिमे अनुभागके अविभागप्रतिच्छेद हैं तथा द्वितीयादि कृष्टि मे क्रमसे अनन्तगुणे
१. "ग्रद्धाणेण सव्वधणे खडिदे मज्झिमधणमागच्छदि" यह पूरा करणसूत्र है इसका अभिप्राय
यह है कि सर्ववनको अध्वानसे खण्डित करने पर मध्यमधन पाता है। अत. विवक्षित गुणहानिका सर्वद्रव्य - गुणहानि प्रआयाम = मध्यमधन (गो क गा १५६ की टीका) ।
या (अध्वान) या (अध्वान) २ "त रुऊणद्धाण गूणेरण रिणसेयभागहारेण मज्झिमधणमवहरिदे पचय" (ल सा गा ७१-७२)
-अर्थात् मध्यधनमे एक कम गच्छका प्राधा दो गुणहानि (निषेक भागहार) मे से घटाने पर जो प्रावे उमका भाग देने पर चय पाता है। अर्थात् चय=मध्यधन- [दो गुणहानि-(गच्छ-१)।२]