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________________ [ गाथा १६५ अर्थ-अपकर्षितद्रव्यका असख्यातवां एकभाग गुणश्रेणि आयाम में दिया जाता है और शेष असंख्यात बहुभाग अन्तरस्थिति व द्वितीयस्थिति में दिया जाता है । अन्तरस्थिति से द्वितीयस्थितिको भाग देनेसे जो संख्यातशलाकारूप लब्ध प्राप्त हो उसका भाग असंख्यातबहुभाग द्रव्यमे देनेसे जो प्राप्त हो उसका चतुरादि खण्ड में गुणा करनेपर जो द्रव्य प्राप्त हो वह द्रव्य समस्त अन्तरस्थितियो मे निक्षिप्त किया जाता है और शेष बहुभाग प्रतिस्थापनावलिहीन द्वितीय स्थितियो मे दिया जाता है। (नोट- यहां जो 'चतुरादि' संख्या दी गई है वह असन्दृष्टिकी अपेक्षासे है 1 ) १६४ ] क्षपणासार विशेषार्थ - - सूक्ष्म कृष्टियोके द्वारा यद्यपि अन्तर भर दिया जाता है अर्थात् पूर्ण कर दिया जाता है और एकरूप हो जाती है, तथापि अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके चरमसमयकी अपेक्षा प्रथम और द्वितीयस्थितिका भेद करके अन्तरका कथन किया गया है । अन्तरस्थितियो में अपकर्षितद्रव्यके असंख्यात बहुभागका संख्यातवां एकभाग दिया जाता है या संख्या बहुभाग दिया जाता है इससम्बन्धमे दो मत हैं । इन गाथाओं के अनुसार असंख्यातवाभाग दिया गया है, किन्तु जयधवल मूल पृष्ठ २२०६ के अनुसार अन्तरस्थितियो मे सख्यातबहुभाग दिया जाता है । जयघवल मूल पृष्ठ २२१० पर इन दोनोमतोंका उल्लेख कर दिया गया है । क्षपणासार बड़ोटीका ( शास्त्राकार ) पृ० ६६७ पर जो असन्दृष्टिआदि दी गई है उसका समर्थन जयधवल मूल (चारित्रक्षपणाधिकार) आग्रन्थ से नही होता अतः यहां नही दी गई । द्वितीयस्थिति मे एक गोपुच्छहीच क्रमसे प्रदेशान तबतक दिये जाते हैं जबतक एकसमयअधिक अतिस्थापनावली शेष रह जाती है । अतिस्थापनावली में द्रव्य नही दिया जाता' । अंतर पडस ठिदित्तिय असंखगुणिदक्कमेण दिज्जदि हु । दीपक मं संखेज्जगुणं हीणक्कमं तचो ॥१६५॥ ५८६ ॥ अर्थ — अन्तरायामको प्रथमस्थिति पर्यन्त तो असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है और उसके ऊपर हीनक्रमसे (गोपुच्छ विशेषहीन) द्रव्य दिया जाता है । उसके पश्चात् सख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है । १. जयघवल मूल पष्ठ २२०६ - २२१० २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७० सूत्र १३१३-१३१४ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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