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________________ गाथा २४७ ] क्षपणासार [ २०६ अर्थ-इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्तकालपर्यन्त अपूर्वस्पर्धकोंके नीचे सूक्ष्मकृष्टि करता है, उन सूक्ष्मकृष्टियोंका प्रमाण जगच्छणिके असख्यातवेभागमात्र है। अपूर्वस्पर्धकसम्बन्धी सर्व जीवप्रदेश और अपूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद इन दोनोंके असख्यातवेंभागप्रमाणकृष्टि प्रथमसमयमें होती हैं । द्वितीयादि समयोमै प्रतिसमय असख्यातगुणे क्रमसे जोवप्रदेशोका अपकर्षण करता है तथा प्रतिसमय की गई कृष्टियोंके नीचे असख्यातगुणेहीन क्रमसहित नवोनकृष्टियां करता है । सर्वसमयोमें की गई कष्टियोंका प्रमाण जगच्छरिणके असख्यात वेभागप्रमाण है अथवा अपूर्वस्पर्धकोके प्रमाणका असंख्यातवेभागप्रमाण है । सर्वकृष्टियां पल्यके असख्यातवेंभागगुणित क्रमसे हैं। विशेषार्थ- अपूर्वस्पर्धक करनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकालतक कृष्टिकरनेके लिए प्रतिसमय असंख्यातगुणितक्रमसे जीवप्रदेशोंका अपकर्षण करते हैं । जघन्यकृष्टिमें समान (सदृश) अविभागप्रतिच्छेदवाले असख्यातजगत्प्रतरप्रमाण जीवप्रदेश हैं । जघन्यकृष्टिके एकजीवप्रदेशसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोको पल्यके असंख्यातवेभागसे गुणा करनेपर द्वितीयकृष्टिके एकजीवप्रदेशसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । इसप्रकार चरमकृष्टिपर्यन्त पल्योपमके असंख्यातवेभागप्रमाण प्रत्येककृष्टिगत अविभागप्रतिच्छेदसम्बन्धी गुणकार जानना । चरमकृष्टिके एकप्रदेशसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंको पल्यके असंख्यातवेभागसे गुणा करनेपर अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामें एकजीवप्रदेशसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । उससे ऊपर ऊपर स्पर्धकोंमें अविभागप्रतिच्छेद विशेषअधिक क्रमसे होते है, यह कथन एकजीवप्रदेशकी अपेक्षा किया गया है । अथवा जघन्यकृष्टिको पल्यके असंख्यातवेभागसे गुणा करनेपर द्वितीयकृष्टि होती है । यह गुणकार चरमकृष्टि तक जानना चाहिए। कृष्टिगत जीवप्रदेशोंके सदृश अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षासे गुणकारका यह कथन किया गया है। चरमकृष्टि में सदृश अविभागप्रतिच्छेदवाले समस्त जीवप्रदेशोके अविभागप्रतिच्छेदसमुदायसे अपूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणासे सदृश अविभागप्रतिच्छेदवाले जीवप्रदेशों में अविभागप्रतिच्छेदोका समूह असख्यातगुणाहीन है। उपरिम अविभागप्रतिच्छेदसम्बन्धी गुणकारके अघस्तनवर्ती जीवप्रदेशसम्बन्धी गुणकार असख्यातगुणा है । यद्यपि चरमकृष्टिके एकवर्गसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोसे अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद एकवर्ग मे असख्यातगुणे हैं, किन्तु जीवप्रदेशोंकी संख्या आदिवर्गणाको अपेक्षा चरमकृष्टिमें असंख्यातगुणी है।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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