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________________ क्षपणासार [गाथा २५६ २२६] सुहमम्हि कायजोगे वट्टतो केवली तदियसुक्कं । ज्झायदि णिरु भिदु जो सुहुम तं कायजोगं पि' ॥" तृतीय शुक्लध्यान अवितर्क-अवीचार और सूक्ष्मक्रियासे सम्बन्ध रखनेवाला होता है, क्योकि काययोगके सूक्ष्म होनेपर सर्वभावगत यह ध्यान कहा गया है। जो केवलोजिन सूक्ष्मकाययोगमे विद्यमान होते हैं, वे तृतीयशुक्लध्यानका ध्यान करते हैं और उस सूक्ष्मकाययोगका भी निरोध करने के लिए उसका ध्यान करते हैं । शंका-योगनिरोध किसे कहते हैं ? समाधान-योगके विनाशको योगनिरोध कहते हैं। अन्तर्मुहूर्तकालतक कृष्टिगत योगवाले अर्थात् सूक्ष्मकाययोगवाले होते हैं तथा उसीकालमे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानको ध्याते हैं । अन्तिमसमयमें कृष्टियोंके असंख्यातबहभागका नाश होता है। . . . . . शंका-केवलीजिनके सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान नहीं बनता, क्योंकि केवलीजिन अशेषद्रव्य और उनकी पर्यायोंको - विषय करते हैं, अपने सम्पूर्णकालमें एकरूप रहते हैं बोर इन्द्रियज्ञानसे रहित हैं अतएव उनका एकवस्तु में मनका-निरोध करना उपलम्य नही है तथा मनका निरोध किये बिना ध्यान होना सम्भव नहीं है, क्योंकि अन्यत्र वैसा देखा नही जाता ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि प्रकृत में "एकवस्तुमै चिन्ताका निरोध करना ध्यान है," यदि ऐसा ग्रहण किया जाता तो उक्त दोष आता, किन्तु यहां ऐना ग्रहण नही है । यहां तो उपचारसे योगका अर्थ चिन्ता है और उसका एकाग्ररूपसे निरोव अर्थात् विनाश जिसध्यानमे किया जाता है वह ध्यान है, ऐसा यहां ग्रहण करता चाहिए । अतः यहा पूर्वोक्त दोप सम्भव नहीं है। "तोयमिव गालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा। पनिहादिकमेण तहा जोगजलं ज्झारण जलणेण' ।।" .. भगती मारायना गाया १८८६-८७ । २. "को जोगनिरोहो ? जोगविणासो" (३० पु० १३ पृष्ठ ८४) . ५यत पु० १३ पृष्ठ ८६ गाथा ७४ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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