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________________ २) লগিৰ [ गाथा २ अर्थ-चारोगतिका मिथ्यादृष्टि-सज्ञी-पर्याप्त-गर्भज-विशुद्धपरिणामी-साकारोपयोगी जीव अतिम पचमलब्धिका अत होनेपर प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है। विशेषार्थ-दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम करनेवाला जीव सामान्यरूपसे चारो ही गतियोमे होता है । 'सण्णी' पदसे तिर्यञ्चगति सम्बन्धी एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असज्ञी पचेन्द्रिय जीवोका प्रतिषेध किया गया है। पर्याप्तावस्थामे ही सम्यक्त्वोत्पत्ति की योग्यता होती है, अपर्याप्तावस्थामे नही इसलिये 'पुण्णो' विशेषण दिया गया है। लब्ध्यपर्याप्त और निवृत्यपर्याप्तावस्थाको छोडकर नियमसे सजीपचेन्द्रियपर्याप्तजीव ही प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिके योग्य होता है'। नरकगतिसम्बन्धी सर्व नारकपृथ्वियोके सभी इन्द्रकविलोमे, सर्व श्रेणिवद्ध व प्रकीर्णकबिलोमे विद्यमान नारकीजीव यथोक्तसामग्रीसे परिणत होकर वेदनाअभिभवादि कारणोसे प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करते है । भवनवासियोके जितने आवास है, उन सभीमे उत्पन्न हुए जीव जिनबिम्बदर्शन और देवर्धिदर्शनादि कारणोसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न करते है । सर्व द्वीप और समुद्रोमे रहनेवाले सजीपचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त तथा ढाईद्वीप-समुद्रोमे सख्यातवर्षकी आयुवाले गर्भज और असख्यातवर्पकी आयुवाले सभी मनुष्य जातिस्मरण, धर्मश्रवणादि निमित्तोसे अपने-अपने लिए सर्वत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करते है, यहा देशविशेषका नियम नही है । शका-त्रसजीवोसे रहित असख्यातसमुद्रोमे तिर्यञ्चोका प्रथमोपशमसम्यक्त्व को उत्पन्न करना कैसे सम्भव है ? समाधान-उन असख्यातसमुद्रोमे भी बैरीदेवोके द्वारा ले जाये गये तिर्यचोके प्रथमोपणमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति पाई जाती है। असख्यातद्वीप-समुद्रोमे जो व्यन्तरावास है उन सभीमे वर्तमान वानव्यन्तरदेव जिनमहिमादर्शनादि कारणोंसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व को उत्पन्न करते है। ज्योतिषीदेव भी जिनविम्बदर्शन और देवद्धिदर्शनादि कारणोसे सर्वत्र प्रथमोपशमसम्यग्दर्शनको उत्पन्नकरनेके योग्य होते है । सौधर्मकल्पसे उपरिमग्न वेयकपर्यन्त सर्वत्र विद्यमान और अपनी-अपनी जातिसे सम्बन्धित सम्यक्त्वोत्पत्तिके कारणोसे परिणत हुए देव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करते है। .. १ ज घ. पु १२ पृ. २६७ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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