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________________ १८० ] लब्धिसार [ गाथा २२४-२.५ नही होता, क्योकि विशुद्धि के द्वारा शुभ प्रकृतियो के अनुभाग का खण्डन नही होता' । अब प्रपूर्वकरणके प्रथमसमयमें गुणश्रेणि निर्जराका प्ररूपण करते हैउदयास्स वाहिं गलिदवसेसा पुरवाणिट्टी । सुहुमद्धादोहिया गुणसेडी होदि तट्ठाणे ॥ २२४॥ अर्थ—अपूर्वकरणके प्रथम समयमे उदयावलिसे बाह्य गलितावशेष गुणश्रेणि होती है । गुणश्रेणिनिक्षेप प्रपूर्वकरण श्रनिवृत्ति कररण- सूक्ष्मसाम्परायके कालसे अधिक है । विशेषार्थ - प्रधिकका प्रमाण उपशान्तकषायके कालका सख्यातवाभाग है र तथा यही पर नपुसकवेद आदि अबध अप्रशस्त प्रकृतियो सम्बन्धी गुणसक्रमणका भी प्रारम्भ होता है । अपूर्वकरणमें बन्ध-उदय व्युच्छित्तिको प्राप्त प्रकृतियों को बताने के लिए आगे गाथा सूत्र कहते हैं १ पढमे छठे चरिमे बंधे दुग तीस चदुर वोच्छिण्णा । छण्णोकसायउदयो अपुचचरिमम्हि वोच्छिण्णा ॥२२५॥ अर्थ — प्रपूर्वकरणकालसम्बन्धी सातभागो में से प्रथमभागमे निद्रा व प्रचला ये दो, छठे भागमे तीर्थंकर आदि तीस और सातवे भाग मे हास्यादि चार, इसप्रकार ३६ प्रकृतिया बन्धसे व्युच्छिन्न हुई तथा अपूर्वकरण के चरमसमय मे हास्यादि छह नोकषाय उदयसे व्युच्छिन्न हुई है । जध पु. १२२६१ । जध पु१३ पृ २२४ व २५१ । जघ. मूल पृ १९४० । ध पु ६ पृ २०६, ६ पु १२ पृ १८ । २ परन्तु जयधवलामे गुण शिका प्रमाण पूर्वकरण व अनिवृत्तिकरणसे साधिक बताया है । जध पु. १३ पृ २२४ । परन्तु अल्पबहुत्व के प्रकरण के प्रथम समय मे गुणश्र ेणी निक्षेप अपूर्वकरण-प्रनिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसाम्पराय के कालसे अन्तर्मुहूर्त से अधिक है । ३ जघ पु १३ पृ २२४ ॥ ४ वन्ध से व्युच्छिन्न ३० प्रकृतिया – देवगति, पचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक- श्राहारक- तैजस-कार्मण शरीर, समचतुरस्रसस्थान, वैक्रियिक- प्राहारक शरीरागोपाग, देवगत्यानुपूर्वी, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, श्रृगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, निर्माण और तीर्थंकर ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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