SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा - १०६-१०७ ] [ée प्रकार क्रोधकषायको उदद्यागत प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य संख्यातगुणा अर्थात् तेरहगुणा है, क्योकि इसमें नोकषायका द्रव्य मिल गया है । " क्षपणासार किस कषायोदयसे श्रेणी चढ़नेवालेके कितनी संग्रहकृष्टियां होती हैं कोहस् य माणस्य मायालोभोदएण चडिदस्त । बारस पत्र छ तिरिणु य संग्रह किट्टी कमे होंति ॥ १०६ ॥ ४६७॥ - अर्थ - क्रोध-मान- माया अथवा लोभके उदयसे क्षपकश्रेणि चढ़नेवाले के क्रम से १२-६-६ व ३ संग्रहकृष्टियां होती हैं । विशेषार्थ :- सज्वलनको के उदयसहित जो जीव श्रेणी चढ़ता है उसके तो चारों कषायोंकी बारह संग्रहकृष्टि होती हैं, क्योकि प्रत्येक कृषायकी तीन-तीन संग्रहकृष्टि होती हैं | मानकषायके उदयसहित श्रेणी चढता है, उसके कृष्टिकरणकाल से पहले हीक्रोधकाः सक्रमण करके स्पर्धकरूपसे क्षय होता है इसलिए सज्वलनक्रोधको संग्रहकृष्टि नही होती अवशेष तीन कषायोंकी & सग्रहकृष्टि होती हैं, मायाकषायके उदयसहित जो श्रेणि चढ़ता है उसके क्रोत्र व मानकषायका कृष्टिकरणकाल से पहले ही सक्रमण करके स्पर्धकरूपसे क्षय होता है इसलिए दो कषायों की छहसग्रहकृष्टि होती है तथा लोभकषाय के उदयसहित जो श्रेणी चढता है उसके क्रोध मान व मायाकषायका कृष्टिकरणकाल से पहले हो स्पर्धक रूप से संक्रमणकरके क्षय होता है इसलिए एक लोभकषायकी ही तीच संग्रहकृष्टि होती हैं। यहां जितनी संग्रहकृष्टि होती हैं उन्ही में कृष्टिप्रमाणका विभाग पथासम्भव जानना चाहिए । अन्तरकृष्टियों की संख्या व उनका क्रम -- संगहगे एक्के अंतर किट्टी हवदिह अता । लोभादिगुण कोहादि अांतगुणहीणा ॥ १०७॥ ४६८ ॥ अर्थ - एक-एक संग्रहकृष्टि में अन्तरकृष्टियां अनन्त हैं तथा उन संग्रहकृष्टियोमें लोभकषाय से लेकर क्रमसे, अनन्तगुणा बढते हुए और क्रोधकषायसे लेकर क्रमसे घटता हुआ अनुभाग जानना । १. जयधवल मूल पृष्ठ २००२ से २०६६ तक । 1 २. जयधवल मूल पृष्ठ २०७१ से २०७३ |
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy