SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 469
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा २०४ ] लब्धिसार [ १६७ कहनेपर पन्द्रह कर्मभूमियोमे से मध्यम खण्डमें उत्पन्न हुए मनुष्यका ग्रहण करना चाहिए, क्योकि कर्मभूमियोमे उत्पन्न हुआ कर्मभूमिज है इसप्रकार वह इस संज्ञाके योग्य है । उससे संयमको प्राप्त करनेवाले अकर्मभूमिज मनुष्यका जघन्य सयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि पूर्व के सयमस्थानसे असख्यातलोकमारण षट्स्थान आगे जाकर इस स्थानकी उत्पत्ति हुई है । उससे सयमको प्राप्त होनेवाले उसीके उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि पूर्वके जघन्य स्थानसे असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर इस स्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है । उससे सयमको प्राप्त होने वाले कर्मभूमिज (आर्य) मनुष्यका उत्कृष्ट सयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि क्षेत्रके माहात्म्यवश पूर्वके संयमस्थानसे इसके अनन्तगुणे सिद्ध होनेमे कोई बाधा नही उपलब्ध होती। उससे परिहारविशुद्धिसयतका जघन्य सयमस्थान अनन्तगुणा है । यह स्थान तत्प्रायोग्य सक्लेशवश सामायिक-छेदोपस्थापनासयमोके अभिमुखं हुए परिहारविशुद्धि संयतके अन्तिम समयमे होता है, परन्तु यह अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान सामायिक-छेदोपस्थापनासम्बन्धी जघन्य सयमलब्धिसे लेकर असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर वहा प्राप्त सयमलब्धि स्थानके सदृश होकर उत्पन्न हुआ है । इसलिये इसके प्रतिपातके अभिमुख होकर स्वस्थानमे सबसे जघन्य होनेपर परिहारविशुद्धिसयमके माहात्म्यवश पूर्वके स्थानसे अनन्तगुणापना सिद्ध होता है। उससे उसीका उत्कृष्ट सयमस्थान अनन्तगुणा होता है, क्योकि पहले जघन्य स्थानसे असख्यात लोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर सामायिक छेदोपस्थापनासम्बन्धी अप्रतिपातअप्रतिपद्यमान स्थानोके भीतर यथागम इस स्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है । उसमे सामायिक-छेदोपस्थापना सयतोका उत्कृष्ट सयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि सामायिक-छेदोपस्थापनाके अजघन्य-अनुत्कृष्ट अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमानस्थानके समान पूर्वके उत्कृष्टस्थानका निर्देश करनेपर तत्पश्चात् निरन्तर क्रमसे फिर भी उससे ऊपर असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान जाकर इस स्थानकी उत्पत्ति अनिवृत्तिकरण क्षपकके अन्तिम समयमें देखी जाती है। उससे सूक्ष्मसाम्परायिक सयतका जघन्य सयमस्थान अनन्तगुणा है । बादर कषायके रहते हुए होनेवाली उत्कृष्ट सयमलब्धिसे सूक्ष्मकषायमे होने वाली जघन्य सयमलब्धि भी अनन्तगुणी होती है, इसके सिवाय वहां अन्यप्रकार सम्भव नही है, परन्तु यह जो उपशामक गिरकर सूक्ष्मसाम्परायमे आया है उसके अन्तिम समयकी लेनी चाहिये । उससे उसीका उत्कृष्ट सयमस्थान अनन्तगुणा है । सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम समयमे सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिका इसके पहले के जघन्य
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy