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क्षपणासार'
[गाथा ६४-६५ 'बंधोदएहिं णियमा अणुभागो होदि णंतगुण हीणो । से काले से काले भज्जो पुण संकमो होदि ॥६४॥४५५।।
अर्थ.-तदनन्तरकालमें बन्ध और उदयकी अपेक्षा अनुभाग नियमसे अनन्तगुणितहीन होता है, किन्तु संक्रमण भजनीय है ।
विशेषार्थः--विवक्षितसमयमे अनुभागबन्ध बहुत होता है और तदनन्तर उत्तरसमयमे विशुद्धिके कारण अनन्तगुणितहीन होता है। इसप्रकार प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन होता जाता है । तथैव अतुभागउदयको भी प्ररूपणा करनी चाहिए अर्थात् विवक्षितसमयमें अनुभागोदय बहुत होता है और उससे अनन्तरसमयोमें प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन होता जाता है । यद्यपि पूर्वमे भी यह कथन किया जा चुका है तथापि सरलतापूर्वक बोध हो जावे इसलिए पुनः कथन किया गया अतः पुनरुक्तदोषको शका वही करना चाहिए । जबतक अनुभागकाण्डकका पतन नही होता अर्थात् जबतक एकअनुभागकाण्डकका उत्कोरण होता है, तबतक अवस्थित अनुभागसंक्रमण होता रहता है । अनुभागकाण्डकका पतन होने पर अन्य अनन्तगुणाहीन अनुभागसक्रमण होता है, क्योकि अनुभागकाण्डकके द्वारा अनन्तबहुभाग अनुभागका घात हुआ है ।
संक्रमणं तदवढे जाव दु अणुभागखंडयं पडिदि । अण्णाणुभागखंडे आढ़ते गतगुणहीणं ॥६५॥४५६॥
अर्थः-अनुभागकाण्डकघातके पतन होनेतक तदवस्थ अर्थात् अवस्थितसक्रमण होता है, अन्य अनुभागखडके प्रारम्भ होनेपर पूर्व से अनन्तगुणा घटता अनुभागसंक्रमण होता है।
१. क. पा० सुत्तःपृ०-७७२ गाथा १४८ एवं सूत्रः ३६५ से ३६६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६३ । जय
"धवल मूल पृष्ठ १९६८-६६ ।। २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७७२ पर "संकमो जाव अणुभागखंडयमुक्कोरेदि ताव तत्तिगो तत्तिगो अणु
भागसकमो । अण्णम्हि अणुभागखंडए आडत्ते अणतगुरणहीणो अणुभागसंकमो।" सूत्र ३६६ । "जाव अणुभागखडये पादेदि ताव अवढिदो चेव संकमो भवदि; अणुभागखडए पुर्ण पदिदे अणुभागसंकमो अणतगुणहीणों जायदि ति।" (धवल पु० ६ पृष्ठे ३६३ टि० नं० २), जयघवल मूल पृष्ठ १६१८