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________________ 8570 गाथा १०८ ] क्षपणासार [१०१. विशेषार्थ-बादर संग्रहकृष्टिसम्बन्धी एक-एकसंग्रहकृष्टिमें अन्तरकृष्टि सिद्धराशिके अनन्तवेंभागमात्र है तथा उनकेअन्तराल एककम कृष्टिप्रमाण हैं, क्योंकि दोकृष्टियों के बीच में एक अन्तराल, तीन कृष्टियोके बीच में दो अन्तराल होते हैं । इसप्रकार विवक्षितकृष्टिप्रमाणमें अन्तराल एककम उस कृष्टिप्रमाण होता है। यहां कारणमें कार्यका उपचार होनेसे अन्तरकी उत्पत्तिमें कारणभूत गुणकारोंको अन्तर कहते हैं। और इन्हीं का नाम कृष्टय तर है । अधस्तनसंग्रहकृष्टि और उपरितनसंग्रहकृष्टिके बीच में ११ अन्तराल होते हैं, क्योंकि क्रोधादि चारकषायसम्बन्धी संग्रहकृष्टियां १२ हैं अतः एककम (१२-१) अन्तरोंका प्रमाण होगा, इन्हींको संग्रहकृष्टय तर कहते हैं । यहां उक्त कथन का यह अभिप्राय जानना कि जितने अन्तराल होते हैं उतनीबार अन्तर कृष्टियोंकी रचना होती है और उनमें स्वस्थान परस्थान गुणकार होता है । वहां स्वस्थानगुणकारका वाम कृष्ट्यंतर है तथा परस्थान गुणकारों का नाम संग्रहकृष्ट्य तर है। एकही संग्रहकृष्टिमें अधस्तन अन्तरकृष्टिसे उपरितन संगहकृष्टि में जो गुणकार होता है वह तो स्वस्थानगुणकार तथा अधस्तन संग्रहकृष्टिकी अन्तिम अन्तरकृष्टि से अन्य संग्रहकृष्टि सम्बन्धी प्रथमअन्तरकृष्टि में जो गुणकार होता है उसे परस्थान गुणकार कहते हैं । इसप्रकार संज्ञाएं बताकर कृष्टय तर और संग्रहकृष्टियोंका अल्पबहुत्वको स्पष्टरूपसे बताने के लिए अङ्कसन्दृष्टिद्वारा कथन करते हैं यहां अनन्तकी सन्दष्टि दो और एकसंग्रहकृष्टिमें अन्तरकृष्टिके प्रमाणकी सन्दृष्टि (४) है । सर्वप्रथम लोभकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी जघन्यकृष्टिको स्थापित करके उसमें अनन्तरूप गुणकारसे गुणा करने पर उसकी द्वितीयकृष्टिका . प्रमाण होता है। यहां उस गुणकारको जघन्यकृष्टयन्तर कहते हैं और उसकी सहनानी (२) है तथा द्वितीयकृष्टिको जिस गुणकारके द्वारा गुणा करनेसे तृतीयकृष्टि होती है उस गुणकारको द्वितीयकृष्टयन्तर कहते हैं, यह जघन्यकृष्टयन्तरसे अनन्तगुणा है और इसकी सहनानी (४) है । इसीप्रकार क्रमसे तृतीयादि कृष्टयन्तर अनन्तगुणे-अवन्तगुणे होते हैं। जिस गुणकारसे द्विचरमकृष्टिको गुणा करनेसे अन्तिमकृष्टि होती है वह अन्तिमगुणकार द्विचरमगुणकारसे अनन्त गुणा है और उसकी सहनानी (4) है। प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तिमकृष्टिको जिसगुणकारसे गुणा किया जानेसे द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी प्रथमकृष्टि होती है वह गुणकार परस्थानगुणकार है और यह स्वस्थानगुणकारोंसे अनन्तगुणा है । अतः इसको छोड़कर द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी प्रथमकृष्टिको जिस गुणकारसे
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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