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________________ गाथा १२७ ] लब्धिसार [ ११३ अधिक भी तथा सख्यातगुणा भी होता है । इसीके अनुसार किसी एकके स्थितिकाडक से दूसरे जीवका स्थितिकाडक तुल्य भी होता है, विशेष अधिक भी होता है, सख्यातगुणा भी होता है' । एक साथ ही प्रथम (उपशम) सम्यक्त्वको ग्रहणकर पुन एक समय ही अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना कर दर्शनमोहकी क्षपणाके लिये उद्यत हए दो जीवोका अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे सत्कर्म सदृश होता है तथा स्थितिकाडक भी सदश होता है । एक जीव दो छ्यासठ सागरोपम तक वेदकसम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वसहित परिभ्रमण करके दर्शनमोहकी क्षपणाके लिये उद्यत हुआ, दूसरा दो छ्यासठसागर कालतक सम्यक्त्वसहित परिभ्रमण किये बिना दर्शनमोहकी क्षपणाके लिये उद्यत हुआ । दूसरे जीवका प्रथमजीवकी अपेक्षा दो छ्यासठ सागरोपमकाल के समयप्रमाण निषेको की अपेक्षा स्थितिसत्कर्म सख्यातवे भाग विशेष अधिक है। दो जीवो मे से एक जीव उपशमश्रेणी पर चढकर, स्थितिका सख्यात बहुभागका घातकर, उपशातमोह से नीचे उतरकर अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा विशुद्धिको पूरकर तथा दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भकर ऐसा प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण परिणामवाला है । दूसरा जीव कषायका उपशम किये बिना दर्शनमोहकी क्षपणाका आरम्भकर ऐसा प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण परिणामवाला हो गया । इन दोनो जीवोमे से दसरे जीवका स्थिति सत्कर्म प्रथम जीवकी अपेक्षा सख्यातगुण है । अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे जघन्य स्थितिसत्कर्मवाले के स्थितिकाडक पल्योपमके सख्यातवेभागप्रमाण है । उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवालेका स्थितिकाडक पृथक्त्वसागर प्रमाण है । स्थितिबन्धापसरणका प्रमाण पल्योपमका सख्यातवाभाग है। अप्रशस्तकर्मोके अनुभागकाण्डकका प्रमाण अनुभाग स्पर्द्ध कोका अनन्तबहुभाग है, किन्तु प्रशस्तकर्मोका और आयुकमका अनभागकाण्डकघात नही होता । अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे ही गुणश्रेणिकी रचना की, किन्तु वह यहा पर उदयावलिसे बाहर है, क्योकि यहा पर उदयादि गणश्रेणिका १. ज.ध. पु. १३ पृ. २३-२४ । २ ज ध. पृ. १३ पृ. २४ । ३ ज. ध. पृ. १३ पृ. २५ । ४ ज.ध. पु. १३ पृ. २७ । ५. ज.ध. पु १३ पृ. ३१ । ६. ज.ध. पु. १३ पृ. ३२ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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