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लब्धिसार
[ गाथा १२७
स्थितिघात व्यतीत होकर यहा प्रकृत समय में होते है । अन्तिमकांडकके पतन होनेपर सम्यक्त्वकी आठवर्षमात्र स्थिति शेष रहती है' ।। १२५ ।।
मिथ्यात्वप्रकृतिके अन्तिमकाण्डककी चरमफालि जिस समय सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिर्मे सक्रमित होती है उस समयमे सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका द्रव्य उत्कृष्ट होता है । तथा सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिको अन्तिमकांडककी चरमफालिका द्रव्य जिससमय सम्यक्त्व - प्रकृतिमे सक्रमित होता है उस समय में सम्यक्त्वप्रकृतिका द्रव्य उत्कृष्ट होता है ॥ १२६ ॥
दर्शनमोहनीयका क्षय करनेवाला जीव यदि गुग्गितकर्माश ग्रर्थात् उत्कृष्ट कर्मसचय युक्त होता है तो उसके उन दोनों प्रकृतियोंका द्रव्य उस समय उत्कृष्ट होता. है और यदि वह जीव उत्कृष्ट कर्मके सचय से युक्त नहीं होता है तो उसको उन्ही दोनो प्रकृतियोका द्रव्य वहा अनुत्कृष्ट होता है । तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति उच्छिष्टावलिमात्र रही सो क्रमसे एक-एक समयमे एक-एक निषेक गलकर दो समय अवशेष रहनेपर जघन्यस्थिति होती है ॥ १२७॥
विशेषार्थ - अध करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के द्वारा दर्शनमोह वीक्षपरणा होती है । जिसप्रकार दर्शनमोहनीयकर्म की उपशामना मे इन तीनोका लक्षण कहा गया है उसी प्रकार क्षपरणामे भी जानना ।
अध प्रवृतकरणमे स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण नहीं है । इतनी विशेषता है कि वह प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि से वृद्धिको प्राप्त होता रहता है । शुभकर्मीका अनुभाग अनन्तगुणी वृद्धिको लिये हुए वधता है और अशुभकर्मोका अनुभाग अनन्तगुणी हानि को लिये हुए बघता है । तथा अन्तर्मुहूर्त कालतक होनेवाले एक स्थितिबन्ध के समाप्त होने पर पल्योपमके सख्यातवे भाग हीन-हीन स्थितिबन्ध होता है ।
अपूर्वकररण के प्रथमसमयमे दो जीवो मे से किसी एक स्थितिसत्कर्म से दूसरे जीवका स्थितिसत्कर्म तुल्य भी होता है और सख्यातवा या असंख्यातवां भाग विशेष
१ सम्यग्मिथ्यात्व के उच्छिष्ठावली प्रमित स्थिति रहने का तथा सम्यक्त्व प्रकृति की ८ वर्ष स्थिति रहने का एक ही काल है । यह प्रवाह्यमान उपदेश है । ज. ध. १३१५४ क. पा. चूरिंग ।
ज. व पु १३ पृ १५ ।
जध पु१३ पृ २२ एव जध पु ३ पृ २०३ ।
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