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________________ क्षपणासार [ गाथा ६७-६८ 'ठिदिसंत घादीणं संखसहस्साणि होति वस्साणं । होति अधादितियाणं वस्साणमसंखमेत्ताणि ॥६७॥४५८।। अर्थः--उसोसमय घातियाकर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्ष होता है और अघातियाकर्मोका असख्यातवर्ष होता है । विशेषार्थः-सात नोकषायरूप कर्मों का संक्रमणवाले जीवके अन्तिमसमयम मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चारघातिया कर्मोका स्थितिसत्कर्म संख्यातहजारवर्षप्रमाण होता है, क्योंकि घातियाकर्म होनेसे अतिअप्रशस्त है अतः स्थितिखण्डके द्वारा इनकी अधिक स्थितिका घात होता है । नाम-गोत्र और वेदनीय इनतीनअघातियाकर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्षप्रमाण है, क्योंकि अघातिया होनेके कारण घातियाकर्मोको अपेक्षा इनका स्थितिघात अल्प होता है। 'पुरिसस्ल य पढमदिदि, आवलिदोसुवरिदासु आगाला । पडि अागाला छिराणा, पडिप्रावलियादुदीरणदा ॥६८॥४५६॥ - अर्थः-पुरुषवेदको प्रथमस्थिति में दोआवलिमात्र शेष रह जानेपर आगाल व प्रत्यागालको व्युच्छित्ति हो जाती है और मात्र प्रत्यावलि शेष रह जानेपर उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। विशेषार्थः-प्रथम और द्वितीयस्थितिके प्रदेशपुञ्जोंके उत्कर्षण-अपकर्षणवश परस्पर विषयसंक्रमको आगाल व प्रत्यागाल कहते हैं। द्वितीयस्थितिके प्रदेशपुंजका प्रथमस्थितिमें आना आगाल तथा प्रथमस्थितिके प्रदेशपुञ्जका प्रतिलोमरूपसे द्वितीय स्थितिमे जाना प्रत्यागाल है । इसप्रकार पुरुषवेदकी प्रथमस्थिति में एकसमयअधिक दोआवलियां शेष रहनेतक आगाल और प्रत्यागाल होते हैं। पुरुषवेदकी प्रथमस्थिति में आवलि और प्रत्यावलिमात्रके शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागाल उपपादानुच्छेद के द्वारा व्युच्छिन्न हो जाते हैं अथवा परिपूर्ण आवलि और प्रत्यावलिके शेष रहनेपर १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २४६-४७ । १० पु० ६ पृ० ३६३ । ज० घ० मूल पृष्ठ १९७१ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २४६, धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४ । जयधवल मूल पृष्ठ १९७१ । यह गाथा ल० सार गाथा २६४ के समान है।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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