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________________ गाथा ४२] क्षपणासार [ ४३ अर्थः--(सोलह प्रकृतियोंके संक्रमणसे आगे) पृथक्त्व स्थितिकाण्डक बीत जानेपर मनःपर्ययज्ञानावरण और दानान्तराय कर्मोका अनुभागबन्ध देशघातिरूप हो जाता है पुनः इतने ही स्थितिबन्ध बीत जानेपर अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरणरूप अवधिद्विक और लाभान्त रायका अनुभागबन्ध देशघातिरूप हो जाता है । इसीप्रकार पथक्त्वस्थितिबन्धोंको पुनः पुनः व्यतीत कर क्रमशः श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तराय इन तीन कर्मोका पश्चात् चक्षुदर्शनावरणका फिर मतिज्ञानावरण एवं उपभोगान्तराय इन दोनोंकर्मोका पुनः वीर्यान्त रायकर्मका अनुभागबन्ध देशघाति हो हो जाता है, किन्तु स्थितिबन्ध पल्योपमके असख्यातवेभागप्रमाण ही होता है । इसप्रकार प्रकृतिगत अनुभाग स्तोक होनेसे देशघातिबन्ध होनेका यह क्रम है। यहां स्थितिबन्ध यथासम्भव पल्यका असख्यातवांभागमात्र ही जानना । श्रागे अन्तरकरणका कथन करते हैं-- 'ठिदिखंडसहस्लगदे चदुसंजलणाण णो कसायाणं । एयट्ठिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरं कुणदि ॥४२॥४३३॥ अर्थः-देशघातिकरणके आगे संख्यातहजार स्थिति काण्डक व्यतीत हो जानेपर एकस्थितिकाण्डकोत्कीरणकालके द्वारा चार संज्वलन और नव नोकषायका अन्तर करता है अन्यका अन्तर नही होता है । विशेषार्थः--अघस्तन और ऊपरितनवर्ती निषेकोंको छोड़कर अन्तर्मुहूर्तमात्र बीचके निषेकोंका परिणाम विशेषके द्वारा अभाव करना अन्तरकरण कहलाता है । [विरह-शून्य और अभाव ये एकार्थवाची हैं.] यहां अन्तरकरणकालके प्रथमसमयमें पहले की अपेक्षा अन्य प्रमाणसहित स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और स्थितिबन्धका प्रारम्भ एक साथ होता है तथा एक स्थितिकाण्डकोत्कीरणका जितना काल है उतने कालके द्वारा अन्तरकरणका कार्य पूर्ण करता है । इसकालके प्रथमादि समयोमें उन निषेकोके द्रव्यको अन्य निषेकोंमें निक्षेपण करता है । १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५२ सूत्र २०६ से २०८ । ध० पु० ६.पृ०.३५७ । २. जयधवल पु० १२ पृष्ठ २७२ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ १९६५ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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