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________________ २१] लब्धिसार [ गाथा २७८ उपनामक होता है । माया और लोभ सज्वलनका स्थितिबन्ध' अन्तर्मुहूर्तकम दो माह प्रमाण होता है । ग्रनन्तरपूर्व व्यतीत हुए दो माह प्रमाण स्थितिबन्धसे अन्तर्मुहूर्त घट कर उससमय दो सज्वलनोंका स्थितिबन्ध होता है । शेषकर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण है जो पूर्व स्थितिवन्धसे सख्यातगुरणा हीन है । इन्ही कर्मोका स्थितिकाण्डक पल्योपमके सख्यातवभागप्रमाण है और अनुभाग काण्डक अनन्तगुणी हानिरूप है । उसममय मान संज्वलनका जो एक समयकम उदयावलिप्रमारण सत्कर्म शेष रहा वह स्तिकतक्रमण द्वारा मायाके उदयमे विपाकको प्राप्त होता है । उदयरूपसे समान स्थितिमे जो सक्रम होता है वह स्तिवुकसंक्रमण है' । मायात्रेदकके प्रथम समयमे पूर्व में कहे गये मानसंज्वलनके एक समयकम दो श्रावलिप्रमाण नवकवन्धके समयप्रवद्धोके ग्राद्य ( प्रथम ) समयप्रबद्ध का निर्लेप होता है, लिये उसे छोड़कर दो समयकम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध प्रत्येक समयमें यातगुणी श्रेणिरूपसे उपशमाए जाते हुए मायावेदक कालके भीतर एक समयंकम दो प्रायति कालके द्वारा पूर्णरूप से उपशमाए जाते है, क्योकि प्रत्येक समय में एक-एक समयबद्ध के उपशामन क्रियाकी समाप्ति हो जाती है । मानसज्वलनके द्रव्यको विशेष हीन श्रेणिकमसे सज्वलन मायामे सक्रमण करता है । ये सर्व क्रिया मायावेदकके प्रथम नमय मे होती है । व मायात्रय उपशमविधान के लिए ३ गाथाएं कहते हैंमायाए पढमठिदी सेसे समयाहियं तु श्रावलियं । मायालोहगावंधो मासं सेसाण कोह आलावो ॥२७८॥ . : मायावेदन के प्रथम समय का स्थितिवन्ध है । प्र.६ पु १३ पृ ३०९ । उदवरूपसे अर्थात् उदीयमान प्रकृतिके रूपमे अनुदय प्रकृतिका स्तुविक होता है। स्थिति मे श्रर्थात् जिस उदीयमान निषेकसे ऊपर वाले अनुदय निषेकका भविष्य मे उदय पाने वाले निषेन में नरम होता है वह उस उदयसे ऊपर वाले निषेकमे ही होगा । अर्थात् स्थिति मम नही होगा यह तात्पर्य है । 7.१३ ३०० से ३०२; क. पा सु पृ. ७०० ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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