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लब्धिसार
[ गाथा ३०६-३०७ प्रथम समयमे किया गया गुणश्रेणीशीर्षके, जो उपशांतकषायके प्रथम गुणश्रेणिशीर्षके भीतर ही नीचे उपलब्ध होता है, के उदयको प्राप्त होनेपर उत्कृष्ट प्रदेशोदयका स्वामित्व होता है, क्योकि सचयको प्राप्त हुए गोपुच्छाओके माहात्म्यवश उसके बहुत अधिक प्रदेशोका सचय होता है। तो ऐसा कहना ठीक नही है, सबसे अधिक प्रदेशपु जको अपेक्षा इसको ग्रहण करना शक्य नही है, क्योकि इस सम्बन्धी समस्त द्रव्यसे भी असख्यातगुणा द्रव्य परिणामोके माहात्म्यवश उपशातकषायके प्रथम समयमे किये गये गुणश्रोणिशीर्षमे होता है । इसलिये पूर्वोक्त स्थल पर ही (प्रथम गुणश्रेणिशीर्प उदय होने पर) ज्ञानावरणादि छह कर्मोका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। यह आदेश उत्कृप्ट है, क्योकि इनका ओघ उत्कृष्ट प्रदेशाग्र क्षपकश्रेणिमे होता है ।
अब ११ वें गुणस्थानमें उदययोग्य सर्व ५६ प्रकृतियोंमें से अवस्थित वेदन और अनवस्थित वेदन वाली प्रकृतियों का विभाजन बताते हैं
णामधुवोदयबारस सुभगति गोदेक्क विग्धपणगं च । केवल णिदाजुयलं चेदे परिणामपच्चया होति ॥३०६॥ तेसिं रसवेदमवढाणं भवपच्चया हु सेसाओ । क्षोत्तीसा' उपसंते तेसिं तिट्ठाण रसवेदं ॥३०७॥
अर्थ-उपशातकषायमे उदययोग्य जो ५६ प्रकृतिया पाई जाती है उनमें तैजसकार्मणशरीर २, वर्णादि ४, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण नामकर्म की ये बारह प्रकृति और सुभग, आदेय, यशस्कीर्ति, उच्चगोत्र, अन्तरायकी पांच, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, प्रचला ये सर्व २५ प्रकृतिया परिणामप्रत्यय है । ये २५ प्रकृतिया परिणाम प्रत्यय है इसलिये उपशातकषायमे उनका रसवेदन अवस्थित है। शेष ३४ प्रकृतिया भवप्रत्यय है इसलिए उन शेष ३४ प्रकृतियोके रसवेदन सबधी तीनस्थान है।
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ज. व पु १३ पृ ३२८-३३० । ३४ प्रकृतिया इसप्रकार हैं-ज्ञानावरण ४, दर्शनावरण ३, वेदनीय २, मनुष्यायु-मनुष्यगति, पचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, आदिके ३ सहनन, ६ सस्थान उपघात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगति, प्रत्येक, बस, बादर, पर्याप्त और दो स्वर ।