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________________ क्षेपणास [ गाथा' दे५ विशेषार्थः - श्रश्वकर्णकरण कार्यके प्रथम समय में अर्थात् अश्वकर्णकरण करनेंवाला प्रथम समय में जिस अवहारकालके द्वारा प्रदेशाप्रका अपकर्षण करता है उसकी उत्कर्षण- अपकर्षणभागहार संज्ञा है । वह उत्कर्षण - अपकर्षणभागहार उपरिमपदोकी 'अपेक्षा स्तोक है, इससे अपूर्वस्पर्धकों का प्रमाण लाने के लिए एकप्रदेशगुणहानि स्थाना• न्तरको एकबार भाग दिया जाता है और अपकर्षण- उत्कर्षणभागहारसे पुन: पुन: भाग दिया जाता है । इसलिए अपकर्षण- उत्कर्षर्ण भागहारसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर क भागहार असंख्यातगुण है और यह पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । " इसका प्रमाण पल्यके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवेभाग है" यह ज्ञान करानेके लिए "इससे पल्यका प्रथमवर्गमूल असंख्यातगुणा है" ऐसा कहा गया है । इस भागहारसे एक प्रदेशगुणहानि स्थानान्तर के स्पर्धकों में भाग देनेसे जो लब्ध प्राप्त हो उतने संज्वलन क्रोधादिके अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं । यह अल्पबहुत्व ऊपर कही जानेवाली निषेकप्ररूपणाका साधनभूत है । अपकर्षण- उत्कर्षणभागृहारसे अपूर्वस्वको के लिए एक प्रदेशगुणहा निस्थानान्तरका भागहार असंख्यात गुणा है, इसका कारण यह है कि प्रदेशपिण्ड इसप्रमाणसे दिये जाते हैं जिससे कि पूर्वस्पर्धककी वर्गणाओंके साथ अपूर्वस्पर्धक की वर्गणा गोपुच्छाकार हो जावे अर्थात् पूर्व और अपूर्व दोनों स्पर्धक मिलकर एक गोपुच्छाकार हो जायें। यदि अपकर्षण- उत्क र्षणभागहारसे एक प्रदेश गुणहानिस्थानान्तरका भागहार असंख्यातगुणाहीन हो जावे तो पूर्वस्पर्धककी वर्गणाओंके साथ अपूर्वस्पर्धक वर्गणाकी एकगोपुच्छाकार रचना नही हो सकती । अपकर्षित समस्तद्रव्य अपूर्वस्पर्धक अध्वानसे अपवर्तित होनेपर अपूर्वस्पर्धककी एकवर्गणाका द्रव्य पूर्वस्पर्धक की, प्रादिवर्गणा के असंख्यातवें भागप्रमाण होता है' | ' ८२] ताहे पुत्रपुवस्सादीदतिसुवदेहि | बंधो हु लतातिमभागोत्ति प्रपुवफड्ढयदों ॥ ८५ ॥४७६ ॥ अर्थ — उस कालमें अपूर्व और पूर्वस्पर्धकोकी प्रादिसे लेकर अनन्तनेभाग -- स्पर्धकों का उदय होता है तथा लताके अनन्तवेंभाग अनुभागसहित अपूर्वस्पर्धक होकर 1 बन्धको प्राप्त होते हैं । : 1 1 1 . 1 १. जयघवल मूल पृ० २०३२ । २. क० पा० सुत्त पृ० ७९३-९४ सूत्र ५२४ से ५२६ । घ० पु० ६ पृ० ३०० । जपधवल मूल पृ० ( 1 २०३६-३७ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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