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________________ क्षपणासार [गाया १११-११२ १०६] पर्याय असम्भव है । परम्परोपनियाकी अपेक्षा लोभकषायकी जघन्यकृष्टिसे क्रोधकषायकी उत्कृष्टसम्बन्धी प्रदेशाग्न अनन्तवेंभागसे विशेषहीन हैं, क्योकि कृष्टिअध्वान एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके अनन्तवेंभागप्रमाण है और एकक्रम कृष्टि अध्वानप्रमाण वर्गणा. विशेषसे हीन समस्त. द्रव्य है। . पडिसमयमसंखगुणं कमेण उक्कहिदूण दव्वं खु । संगहहेटपासे अपुवकिट्टी करेदी हु ॥१११॥५०२।। हेट्टा असंखभागं फासे विस्थारदो असंखगुणं । मझिमखंडं उभयं दवविलेसे हवे फासे ॥११२॥जुम्म।।५ ०३।। अर्थ--प्रथमसमयसे द्वितीयादि समयोमें असख्यातगुणे क्रमयुक्त द्रव्यको अपकर्षणके द्वारा संग्रहकृष्टिके नीचे अथवा पार्श्व में अपूर्वकृष्टिको करता है । सग्रहकृष्टिके नीचे की हुई कृष्टियोंका प्रमाण. तो सर्वकृष्टियोके प्रमाणके असख्यातवेभागमात्र है तथा पार्श्वमें की हुई कृष्टियोका प्रमाण नीचे की हुई कृष्टियोंके प्रमाणसे असंख्यातगुणा है । यहां पार्श्वमें की हुई कृष्टियोमें मध्यमखण्ड और उभयद्रव्य विशेष पाये जाते हैं । विशेषार्थ- कृष्टिकरणकालमें प्रतिसमयः अनन्तगुणी विशुद्धि बढते रहनेसे असंख्यातगुणे-असंख्यातगुणे द्रव्य का.अपकर्षणकरके संग्रहकृष्टियोके नीचे अपूर्वकृष्टियोंको करता है और पूर्वकृष्टियोथे द्रव्य देता है अर्थात् पार्श्वभागमें कृष्टियोंको, करता है। पूर्व-अपूर्वस्पर्शकोंसे. जितना द्रव्य प्रथम समय में अपकर्षण किया था उससे असंख्यातगुणे द्रव्यको द्वितीयसमयमें अपकर्षणकरके प्रथमसमयमें की गई कृष्टियोंके असख्यातगुणे द्रव्यको अपकर्षणकरके प्रथमसमयमें की गई कृष्टियोके नीचे अन्य अपूर्वकृष्टियोंकी रचना करता है जो प्रथमसमयमें निर्वतितकृष्टियोके असंख्यातवेंभागमात्र है। प्रथमसमय में निर्वतित कृष्टियोमें तत्प्रायोग्य पल्यके असख्यातवेभागका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतनो अपूर्वकृष्टियां द्वितोयसमयमे होतो हैं । द्वितीयसमयमें जितना-द्रव्य अपकर्षित किया गया है उसके असंख्यातवेंभाग द्रव्यको आगमके अविरोधरूपसे पूर्वकृष्टियों में तथा पूर्व अपूर्वस्पर्धको देता है। इस प्रकार एक-एक संग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्वकृष्टियोंको करता है । संज्वलनक्रोध के पूर्व-अपूर्व स्पर्धाकोसे प्रदेशाग्रको अपकर्षित करके क्रोधकी १. जयघवल मूल पृष्ठ २०५७ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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