SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षपणासार १६८) [गाथा १९९-२०० काण्डकोंमे जबतक चरमफालि प्राप्त नहीं होती तबतक जो अपकृष्टद्रव्य है वह सम्पूर्णद्रव्यका यसंख्यातवेंभागमात्र तथा अन्तिमफालिका द्रव्य सर्वद्रव्यके संख्यातवेंभागप्रमाण है। 'अंतरपदमठिदिति य असंखगुणिदक्कमेण दिस्सदि हु। हीणं तु मोह विदियट्ठिदिखंडयदो दुघादोत्ति ॥१६६॥५६॥ अर्थ-मोहनीयकर्मका प्रथमस्थितिकाण्डक निर्लेपित होनेपर द्वितीयस्थितिकाण्डकघातसे द्विचरमकाण्डकघातपर्यन्त दृश्यमान द्रव्य गुणश्रेणिके प्रथमनिषेक में स्तोक है, उससे गुणश्रेणिशीर्षके ऊपरवर्ती अन्तरायामकी प्रथमस्थितिपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसहित है और उसके ऊपर चरमसमयपर्यन्त विशेष घटते हुए क्रमसे दृश्यमान द्रव्य है, क्योकि प्रथमकाण्डककी चरसफालिका पतनसमयमे गुणश्रेणीसे ऊपर सर्वस्थितिका एक गोपुच्छ होता है । पढमगुणसेडिसीलं पुश्विल्लादो असंखसंगुणियं । उपरिमलमये दिस्सं विसेसअहियं हवे सीसे ॥२००॥५६१॥ अर्थ-सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानसम्बन्धी प्रथमस्थितिकाण्डकके निर्लेपित होने के पश्चात् अर्थात् द्वितीयस्थितिकाण्डकके प्रथमसमयमें गुणजिशीर्ष पूर्वसमयके गुणश्रेणीशीर्षसे असंख्यातगुणा दिखाई देता है, किन्तु आगे द्वितीयादि समयो में गुणश्रेणिशीर्ष पूर्व समयवर्ती गुणश्रेणिशीर्षसे अधिक दिखाई देता है । विशेषार्थ-द्वितीयस्थितिकाण्डकमें अपकर्षितकरके ग्रहण किया गया समस्तद्रव्य भी मिलकर एकस्थितिके द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवेंभागसे भाजितकरके जो १. जयघवल मूल पृष्ठ २२१३ प. ८-१०॥ २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८७१ सूत्र १३२६-१७; धवल पु० ६ पृष्ठ ४०६ । ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२१४ । ४. "गुणसे डि दिस्समाण दव्वमेत्तो पाए असखेज्जगुणं ण होदि विसेसाहिय चेव होदि । तत्य कारण परूवरणा जहा दसरणमोहक्खवणाए सम्मत्तस्स अट्ठ वस्सट्टि सत्तकम्मादो उवरि मरिगदा तहा चेव मगिदूण गेण्हियष्वा ।" (जयधवल मूल पृष्ठ २२१५)
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy