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लब्धिसार
[ गाथा २२९ १८४]
अर्थ-सहस्रो स्थितकाडक व्यतीत हो जाने पर तथा अनिवृत्तिकरणकालका बहुभाग बीत जानेपर असमीके स्थितिबधके समान स्थितिबन्ध होता है ।
विशेषार्थ-तत्पश्चात् अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयसे लेकर प्रत्येक हजारों अनुभागकाडकोके अविनाभावी ऐसे बहुत हजार स्थितिकाडकोके स्थितिबन्धापसरणोके माय व्यतीत होने पर सातो ही कर्मोका स्थितिबन्ध लक्षपृथक्त्व सागरोपमसे बहत अधिक घटकर हजारपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण हो जाता है । तत्पश्चात् अनिवृत्तिकरणके मन्यात वहुभाग के व्यतीत होनेपर असज्ञीके समान स्थितिबन्ध होता है। इतनी विणेपता है कि मोहनीयकर्मका हजार सागरोपमके चार बटे सात भागप्रमाण असज्ञीके योग्य स्थितिबन्धके हो जानेपर शेष कर्मोंका अपने-अपने प्रतिभागके अनुसार हजार सागरोपमका तीन वटे सात भागप्रमाण और दो बटे सात भागप्रमाण यहा पर स्थितिबन्धका प्रमाण होता है ।।
ठिदिबंधपुछत्तगदे पत्तेयं चदुर तिय वि एएदि । ठिदिवंधसमं होदि हु ठिदिवंधमणुक्कमेणेव ॥२२६॥
अर्थ- उसके पश्चात् प्रत्येक स्थानके लिये पृथक्त्व स्थितिबधापसरण बीत जानेपर क्रमसे चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय व एकेन्द्रिय जीवोके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होता है।
विशेषार्थ-इतनी विशेषता है कि अपने-अपने प्रतिभागके अनुसार चतुरिन्द्रिय आदि जीवोमे क्रमसे सौ सागरोपम, पचास सागरोपम, पच्चीस सागरोपम और पूरे एक सागरोपमके चार वटे सात भाग,' तीन वटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण जो स्थितिवन्ध होता है उसके समान स्थितिबन्ध होता है । यहा पर पृथक्त्वका निर्देश विपुलतावाची है अत. हजार पृथक्त्व ग्रहण करना चाहिए ।
१. ध पु.: पृ २६५। २. नानावरण, दर्गनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मका ३. नाम-गोत्रका ४ ज. घ. पु. १३ पृ. २३३ । " चारित्रमोहका स्थितिबन्ध । ६ भानावरण-दर्गनावरण वेदनीय व अन्तरायका । ७. नाम व गोत्रमा ८ ज घ. पु. १३ पृ. २३३ । ६ जप पु १३ पृ २२५।।