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________________ २१६ ] लब्धिसार [ गाथा २७५-२७६ अर्थ-मानसज्वलनकी प्रथमस्थितिमे एक समय अधिक एक प्रावलि शेष रहने पर तीन (मान, माया, लोभ) सज्वलनका स्थितिवन्ध दो मास प्रमाण होता है । शेषकर्मोका स्थितिबन्ध क्रोधके आलाप सदृश (सख्यातहजार वर्षप्रमाण) है । विशेषार्थ--प्रत्यावलिमे एकसमय शेष रहनेपर सज्वलनमान-माया-लोभका स्थितिवन्ध दो-माहप्रमाण होता है। शेष कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है जो पूर्व स्थितिबन्धसे सख्यातगुणाहीन है' । माणस्त य पढमठिदी सेसे समयाहिया तु आवलियं। तियसंजलणगबंधो दुमास सेलाण कोह आलावो ॥२७५॥ अर्थ- जब तक प्रथम स्थितिमे तीन प्रावलि शेष रहती है तव तक दो (अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण) प्रकार मानको सज्वलनमानमे संक्रमित करता है, उसके बाद सज्वलन माया मे । विशेषार्थ-मान सज्वलनकी प्रथमस्थितिके तीन प्रावलि शेष रहने तक अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणरूप दो प्रकारके मानको सज्वलनमानमे संक्रमित करता है । मान सज्वलनकी प्रथम स्थितिके एक समयकम तीन आवलिप्रमाण शेष रहनेपर इन दो प्रकारके मानको सज्वलनमानमें सक्रात नही करता है, किन्तु मायासज्वलनमे सक्रान्त करता है । संज्वलनमानको भी सज्वलनमायामें संक्रान्त करता है। विस्तार पूर्वक कथन सज्वलनक्रोधके समान है। ___ इससे आगे फिरभी एक समयकम एक आवलिप्रमाण प्रथमस्थितिको गलाकर दो आवलि ( प्रत्यावलि और उदयावलि ) के शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागाल व्यच्छिन्न हो जाते हैं । उदयावलिके ऊपरकी जो दूसरी आवलि है वह प्रत्यावलि कही जाती है। तदनन्तर पुनः एक समयकम एक प्रावलि अर्थात् प्रत्यावलिमें एक समय शेष रहने पर जो कार्य होता है उसको बतलाते हैं माणस्स य पढमठिदी श्रावलिसेसे तिमाणमुवसंतं । ण य णवकं तत्थंतिमबंधुदया होति माणस्त ॥२७६।। १. ज प पु १३ पृ. २६६ । २. ज व पु १३ पृ २९८-२६६ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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