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________________ [५ गाथा ४-५ ] लब्धिसार (क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना व प्रायोग्य) चार लब्धियां होनेपर प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्तिका नियम नही है, किन्तु करणलब्धिके प्रारम्भ होनेपर प्रथमोपशमसम्यक्त्व अवश्य उत्पन्न होगा। जिन जीवोको प्रथमोपशम सम्यक्त्व होना है उनको तथा जिनको नही होना है उनको भी क्षयोपशमादि चारलब्धिया हो जाती है। अत. प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति और अनुत्पत्तिकी अपेक्षा आदिकी चारो लब्धिया साधारण ( सामान्य ) है। अब क्रमप्राप्त क्षयोपशमलब्धिका स्वरूप कहते हैकम्ममलपडलसत्ती पडिसमयमणंतगुणविहीणकमा । होद्णुदीरदि जदा तदा खोवसमलद्धी दु ॥४॥ अर्थ-प्रतिसमय क्रमसे अनन्तगुणी हीन होकर कर्ममलपटल शक्तिकी जब उदीरणा होती है तब क्षयोपशम लब्धि होती है। .. विशेषार्थ- पूर्वसचित कर्मोके मलरूप पटलके अर्थात् अप्रशस्त (पाप) कर्मोके अनुभागस्पर्धक जिससमय विशुद्धिके द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुणहीन होते हुए उदीरणाको प्राप्त होते है उससमय, क्षयोपशमलब्धि होती है। अब विशुद्धिलब्धिका स्वरूप कहते हैमादिमलद्रिभवो जो भावो जीवस्त सादपदीणं । सस्थाणं पयडीणं बंधणजोगो विसुखलद्धी सो ॥५॥ अर्थ-आदि (प्रथम) लब्धि होनेपर साताअादि प्रशस्त (पुण्य) प्रकृतियोके बन्धयोग्य जो जीवके परिणाम वह विशुद्धिलब्धि है। विशेषार्थ-प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन क्रमसे उदीरित अनुभागस्पर्धकोसे उत्पन्न हुआ साताअादि शुभकर्मोके बन्धका निमित्तभूत और असाताआदि अशुभकर्मोके बन्धका विरोधी जो जीवका परिणाम, वह विशुद्धि है उसकी प्राप्तिका नाम विशुद्धिलब्धि है। १. २ ध. पु. ६ पृ. २०४। घ. पु ६ पृ. २०४।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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