SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लब्धिसार १०७ १२] कहा गया है कि प्रवचनमे उपदिष्ट अर्थ का आज्ञा और अधिगम से विपरीतता के बिना श्रद्धान करना सम्यग्दृष्टि का लक्षण है। अब मिश्रप्रकृतिके उदयका कार्य कहते हैंमिस्सुदये सम्मिस्सं दहिगुडमिस्सं व तच्चमियरेण ।। सद्दहदि एक्कसमये मरणे मिच्छो व अयदो वा ॥१०७॥ अर्थ-मिश्रप्रकृति के उदय मे दधि और गुड के मिश्रित स्वादके समान एक समयमे सम्यक्त्व व मिथ्यात्व मिश्रित तत्त्व का इतर जाति ( जात्यन्तर ) रूप श्रद्धान होता है । मरणकाल मे मिथ्यात्व या असयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है । विशेषार्थ-जिसप्रकार दही और गुड परस्पर इसप्रकार मिल जाते है कि उनका पृथक् पृथक् अनुभव नही हो सकता, किन्तु खट्टा और मीठा मिश्रित रसास्वाद का अनुभव होता है उसी प्रकार एक ही काल मे सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिले हए परिणाम मिश्र ( सम्पग्मिथ्यात्व ) प्रकृति के उदय से होते है । अभेद विवक्षा, में उसके जात्यन्तर भाव कहा है (अभेद विवक्खाए जच्चतरत्तं) किन्तु भेद की विवक्षा करने पर उसमे सम्यग्दर्शन का एक अश है ही। यदि ऐसा न माना जावे तो उसके. जात्यन्तर मानने में विरोध आता है । शंका-एक जीव मे एक साथ सम्यक् और मिथ्यारूप दृष्टि सम्भव नही है, क्योकि इन दोनो दृष्टियो का एक जीव मे एक साथ रहने मे विरोध आता है। यदि कहा जावे कि ये दोनो दृष्टिया क्रम से एक जीव में रहती है तो उनका सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नाम के स्वतन्त्र गुणस्थानो मे ही अन्तर्भाव मानना चाहिए । इसलिये सम्यग्दृष्टि भाव सम्भव नही है । ___ समाधान-युगपत् समीचीन और असमीचीन श्रद्धावाला जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि है । इसमे विरोध भी नही आता, क्योकि आत्मा अनेक धर्मात्मक है, इसलिये उसमे अनेक धर्मो का सहानवस्थान लक्षण का विरोध प्रसिद्ध है । प्रात्मा के अनेकात१. ज. घ. पु १२ पृ. ३२१-२२ । २. घ. पु १ पृ. १६८, प्रा प. स. १११०; गो. जी का. गा. २२ । । ३. घ. पु. ५१ २०८ । ५पृ. २०८ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy