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________________ लब्धिसार [ गाथा १६७ दर्शनमोहका क्षय होनेपर उसी भवमे प्रथवा तृतीय भवमें अथवा मनुष्य या तिर्यचायु का पूर्वमे ( दर्शनमोहका क्षय होने से पहले) बन्ध हो जानेके कारण भोगभूमि की अपेक्षा चौथे भवमे सिद्ध पद प्राप्त करता है । चतुर्थभवका उल्लघन नहीं करता । औपशमिक - क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के समान यह नाशको प्राप्त नही होता है । १४२ ] उक्त सात प्रकृतियोके क्षयसे असंयतसम्यग्दृष्टिके क्षायिकसम्यक्त्वरूप जघन्य क्षायिकलब्धि होती है तथा चार घातिया कर्मोंके क्षयसे परमात्माके केवलज्ञानादिरूप उत्कृष्ट क्षायिकलब्धि होती है । उवणेड मंगलं वो भवियजणा जिवरस्स कमकमलजुयं । जस कुलिसकलससत्थिय ससं कसं खं कुसा दिलक्खणभरियं ॥ १६७॥ अर्थ — मत्स्य, वज्र, कलश, शक्थिक चन्द्रमा, अकुश' शख आदि नाना शुभलक्षणोसे सुशोभित जिनेन्द्र भगवानके चरण कमल भव्य लोगोको मगल प्रदान करे । ॥ इति क्षायिकसम्यक्त्व प्ररूपणा समाप्त ॥ १. भगवानके शरीरमे शख आदि १०८ एव मसूरिका आदि ६०० व्यंजन, इसप्रकार कुल १००८ लक्षण विद्यमान थे ( महापुराण अ. १५।३७ )
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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