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________________ गाथा १८८ ] लब्धिसार [ १५५ प्रतिपातस्थानोका अध्वान (आयाम) स्तोक है, उससे प्रतिपद्यमानस्थानोंका अध्वान असख्यातगुणा है। उससे अनुभयस्थानोका अध्वान असख्यातगुणा है । गुणकार सवत्र असख्यातलोकप्रमाण है। ___अब देशसंयमके उक्त भेदों में से किसका कौन स्वामी है इसका निर्देश करते हैं पडिवाददुगंवरवरं मिच्छे अयदे अणुभयगजहणणं । मिच्छचरविदियसमये तत्तिरियवरं तु सट्ठाणे॥१८८॥ अर्थ-देशसंयतसे मिथ्यात्वको जानेवाले के जघन्य प्रतिपातस्थान और असयतसम्यग्दप्टिगुणस्थानको जाने वाले के उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान होते है। इसीप्रकार मिथ्यात्वसे देशसयम प्राप्त करनेवालेके जघन्य प्रतिपद्यमानस्थान होता है और असयत चतुर्थगुणस्थानसे देशसंयमको प्राप्त करनेवालेके उत्कृष्ट प्रतिपद्यमानस्थान होता है। "पडिवाद दुग" से प्रतिपातस्थान व प्रतिपद्यमानस्थान इन दोनों स्थानोंका ग्रहण होता है । मिथ्यात्वसे देशसंयमको प्राप्त करनेके दूसरे समयमें जघन्य अनुभयस्थान होता है । तिर्यचोका उत्कृष्ट अनुभयस्थान स्वस्थानमे ही होता है । विशेषार्थ-मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले सबसे अधिक सक्लेश परिणामसे युक्त देशसयतमनुष्यके सबसे जघन्य प्रतिपात लब्धिस्थान होता है। उससे, मिथ्यात्वमें गिरनेवाले तिर्यचका जघन्य प्रतिपात लब्धिस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि पूर्वके लब्धिस्थानसे असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर यह स्थान प्राप्त होता है। उससे तत्प्रायोग्य सक्लेश द्वारा असयमको गिरनेवाले देशसंयत तिर्यचके अन्त समयमें होनेवाला तिर्यच योग्य उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान अनन्तगुणा है। यह वेदकसम्यक्त्वसे युक्त असयमको प्राप्त होनेवाले तिर्यचके होता है। इसका अनन्तगुणा होना प्रसिद्ध नहीं है, असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लघकर यह स्थान प्राप्त होता है। उससे तत्प्रायोग्य जघन्य सक्लेशसे सम्यक्त्वके साथ असंयमको प्राप्त होनेवाले देशसयत मनुष्यके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर यह स्थान प्राप्त होता है। तत्प्रायोग्य विशुद्धि से मनुष्य मिथ्यात्वीके सयमासंयमको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें प्रतिपद्यमान जघन्य लब्धिस्थान अनन्त, गुणा है । तत्प्रायोग्य विशुद्धिके द्वारा मिथ्यात्वसे देशसयमको ग्रहण करनेवाले तिर्यंचके प्रथम समयमें यह तिर्यंच योग्य जघन्य प्रतिपद्यमानस्थान पूर्वके स्थानसे अनंत
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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