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( १६ ) शब्द पृष्ठ
परिभाषा अभिप्राय-अघ.प्रवृत्तकरण के प्रथम समय में जितने परिणाम होते हैं वे अधःप्रवृत्त करण के काल के सख्यातवें भाग प्रमाण खण्डो मे विभाजित हो जाते हैं । जो उत्तरोत्तर विशेष अधिक प्रमाण को लिये हुए होते हैं । यहा पर उन परिणामो के जितने खण्ड हुए; निर्वर्गणाकाडक भी उतने समय प्रमाण होता है । जिसकी समाप्ति के बाद दूसरा निर्वर्गणाकाण्डक प्रारम्भ होता है। आगे भी इसीप्रकार
जानना चाहिये । (ज० ५० १२/२३७ विशे०) नियांधात
४८ स्थितिकाण्डकघात का प्रभाव निर्व्याघात कहलाता है । ( अपकर्षण मे )
ज० घ० ८/२४७ उत्कर्षण मे-पावली प्रमाण अतिस्थापना का प्रतिघात ही यहा व्याघातरूप से विवक्षित है । (ज० घ० ८ पृ० २५३) जहा' । प्रतिस्थापना एक आवली से कम पाई जाती है वहा व्याघात विषयक उत्कर्षण होता है । (ज० घ० ८/२६२) अतः जिस समय प्रावली प्रमाण प्रतिस्थापना वन जाती है वह अव्याघात (निर्व्याघात) विषयक उत्कर्षण कह
लाता है। प्रकृतिवन्यापसरण १.
अर्थात् प्रकृतिबन्ध व्युच्छित्ति। कहा भी है- 'प्रकृतिबन्ध व्युच्छित्तिरूप एक बन्धापसरण" । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि के प्रायोग्य लब्धि के समय ३४ प्रकृतिबन्धापसरण होते हैं (पृ० १०) जिनमे ४६ प्रकृतियो को बन्ध-व्युच्छित्ति हो जाती है। पृष्ठ १४ यह बन्धव्युच्छेद विशुद्धि को प्राप्त होने वाले भव्य और प्रभव्य मिथ्यादृष्टि मे साधारण अर्थात् समान है । (धवल ६ पृष्ठ १३५ से १३६) यहा (धवला मे) प्रकृति बन्धापसरण की जगह "प्रकृत्ति बन्ध व्युच्छेद" शब्द ही
काम लिया है । प्रकृति बन्ध का क्रम से घटना प्रकृतिबन्धापसरण कहलाता है। प्रतिपद्यमान स्थान १५३ देखो-अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान स्थान की परिभाषा मे । प्रतिपात स्थान , प्रत्यावली २१६, २०८ पावली के ऊपर की जो दूसरी प्रावली है वह प्रत्यावली कही जाती है ।१
ज० ५० १३/२६८-२६६ प्रथमस्थिति
देखो-द्वितीयस्थिति की परिभाषा मे । प्रथमोपशम १,२,३
___ अनन्तानुबन्धी ४ और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियो
के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व होता है। यह मिथ्या दृष्टि जीवो को ही होता । सम्यक्त्व
१ इसे द्वितीयावली भी कहते है।