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शब्द देवचतुष्क
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देशकरणोपशामना २४६ देशपातीकरण १७७
देशचारित्र
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देशनालन्धि
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परिभाषा देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर अगोपांग; इन चार प्रकृतियो का समूह "देवचतुष्क" कहलाता है। देखो-करणोपशामना की परिभाषा मे । अनिवृत्तिकरण काल मे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का बन्ध जव देशघातिरूप होने लगता है, सर्वघातीरूप से बन्ध नहीं होता तव उसको देशघातीकरण कहते हैं। इसे संयमासंयम भी कहते हैं। देशचारित्र का घात करने वाली अप्रत्याख्यातावरण कषायो के उदयाभाव से हिंसादिक दोषो के एक देश विरतिलक्षण अणुव्रत को प्राप्त होने वाले जीव के जो विशुद्ध परिणाम होता है उसे "देशचारित्र" अथवा संयमासयमलब्धि कहते हैं । जीवादिक ६ द्रव्य तथा जीव, अजीव, आस्रव आदिक पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है । उस देशना से परिणत प्राचार्यादि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशनालब्धि कहते हैं । धवल ६/२०४ जीव दर्शनमोह आदि के उपशम के समय अन्तरकरण करता है । उस समय वह अन्तर के लिये जितनी स्थितियो को ग्रहण करता है उसकी “अन्तरायाम" संज्ञा है। उस अन्तराय के नीचे जितनी स्थिति है वह "प्रथम स्थिति" कहलाती है। तथा अन्तराय से ऊपर जितनी कर्म स्थिति है वह "द्वितीय स्थिति,' कहलाती है। मिथ्यात्व से उत्पन्न होने वाला उपशम सम्यक्त्व प्रथमोपशम सम्यक्त्व है। यह चतुर्थ से सप्तम गुणस्थान तक होता है । क्षयोपशम सम्यक्त्व अर्थात वेदकसम्यक्त्व पूर्वक होने वाला उपशम सम्यक्त्व द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है । यही फिर चारित्रमोह की उपशामना करने के लिये प्रवृत्त होता है, अन्य प्रथमोपशम सम्यक्त्वी या वेदक सम्यक्त्वी नही। यह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व चतुर्थगुणस्थान से सप्तमगुणस्थान तक के किसी भी गुण स्थान मे स्थित क्षायोपशम सम्यग्दृष्टि मनुष्य के उत्पन्न होता है । घवल पु० १/११, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ४८४ की टीका, मूलाचार पर्याप्ति अधिकार १२ गा• २०५ की टीका, धवल १/२१४
द्वितीय स्थिति
७०
द्वितीयोपशम
१७०,
सम्यक्त्व
१७१
अन्यत्र भी कहा है-उपशम श्रेणि के योग से जिसका मोह (दर्शन मोह) उप