Book Title: Labdhisara Kshapanasara
Author(s): Ratanchand Mukhtar
Publisher: Dashampratimadhari Ladmal Jain

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Page 632
________________ ai L कृष्टि क्रमकरण क्षयोपक्षमलव्धि शायिक सम्याद क्षुद्रभव ग्रहण २३३ क्षप० ६३ पृष्ठ गुण शिपायाम १७७ ५ १०४ ३०३ ४६ ( १४ ) परिभाषा १ जय धवल मूल पृष्ठ १५७५ तथा क० पा० सुत्त पृ० ७०६ कपाम की अपेक्षा परिभाषा - जिसके द्वारा सज्वलन कपायों का अनुभाग सत्त्व उत्तरोत्तर कृश अर्थात् अल्पतर किया जाय उसे कृष्टि कहते है । क० पा० सु० पृ० ८०८ योग की अपेक्षा परिभाषा - पूर्व पूर्व स्पर्धक स्वरूप से ईंटो की पक्ति के प्राकार मे स्थित योग का उपसहार करके जो सूक्ष्म सूक्ष्म खण्ड किये जाते हैं उन्हें कृष्टि कहते हैं | ज० घ० प्र० प० १२४३, जैन लक्ष० २ / ३६७ अनिवृत्तिकरण काल मे मोहनीय का स्थितिबन्ध स्तोक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का स्थितिबन्ध तुल्य, किन्तु मोहनीय के स्थितिबन्ध से प्रसरवातगुणा तथा नाम- गोत्र का स्थिति वन्ध तुल्य, परन्तु पूर्व से असत्यातगुणा और वेदनीय कर्म का स्थिति बन्ध विशेष अधिक होता है जब इस क्रम से स्थितिबन्ध होता है तब इसे क्रमकरण कहते हैं । पूर्व सचित कर्मों के मलरूप पटल के [अर्थात् प्रशस्त ( पाप ) कर्मों के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनन्त गुणे हीन होते हुए उदीरणा को प्राप्त होते हैं, उस समय क्षयोपशम लब्धि होती है । चार अनन्तानुवन्धी कषाय तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व प्रकृति, इन सात प्रकृतियों के क्षय से होने वाले सम्यक्त्व को क्षायिक सम्यक्त्व कहते है। सबसे छोटे भवग्रहण को क्षुद्र भव कहते हैं और यह एक उच्छवास के [ संख्यात भावनी समूह से निष्पन्न] साधिक बठारहवें भाग प्रमाण होता हुआ सत्यात प्रावलि - सहस्र प्रमारण होता है । जय घवल में कहा है कि संख्यात हजार कोडा कोडी प्रमाण आवलियो के द्वारा एक उच्छवास निप्पन्न होता है और उसके कुछ कम १८वें भाग प्रमाण (१ वा भाग) यह क्षुल्लक भवग्रहण (क्षुद्रभवग्रहरण) १७६ होता है। ज० ० मूल पृष्ठ ११३० जिन नियेको मे गुलकार कम से अपकवित इव्य निक्षेपित किया जाता है मर्याद १. शेष कर्मों की अकरणोपशामना तथा देशकरगोपशामना तो होती है, ऐसा जानो ।

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