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परिभाषा
करगोपशामना के भी दो भेद हैं-- देश करगोपशामना और सर्वकरगोपशामना । प्रणस्तोपशमनादि करणो के द्वारा कर्म प्रदेशो के एक देश उपशान्त करने को देशकरगोपशामना कहते हैं । सर्व करणो के उपशमन को सर्व करगोपशामना कहते हैं । अर्थात् उदीरणा, निर्धात्ति, निकाचित आदि ग्राठो करणो का अपनीपनी क्रियाओ को छोड़कर जो प्रशस्तोपशामना के द्वारा सर्वोपशम होता है, उसे सर्व करगोपशामना कहते है । कषायो के उपशमन का प्रकरण होने से प्रकृत मे यही सर्व करगोपशामना विवक्षित है । क० पा० सु० पृष्ठ ७०६
विस्तार इसप्रकार है- उपशामना दो प्रकार की होती है— करणोपशामना और अकरणोपशामना । उनमें से सर्व प्रथम उपशामना पद की व्याख्या करते हुए जय बबला मे (पृष्ठ १८७१ - ७२) बताया है कि उदयादि परिणामो के विना कर्मों का उपशान्त भाव से अवस्थित रहना इसका नाम उपशामना है । यहा "उदयादि परिणामो के विना" का अर्थ यह कि किसी भी कर्म का बन्ध होने पर विवक्षित काल तक उदयादि के बिना तदवस्थ रहना इसका नाम उपशामना है । यह उपशामना का सामान्य लक्षण है जो यथासम्भव कररगोपशामना और प्रकरणोपशामना दोनो मे घटित होता है । जय घवला मे कहा है कि प्रशस्त प्रशस्त परिणामो के द्वारा कर्म प्रदेशो का उपशमभाव से सम्पादित होना करगोपशामना है अथवा करणो की उपशामना का नाम कररगोपशामना है । उपशामना, निवत्त, निकाचना श्रादि नाठ करणो का प्रशस्त उपशामना द्वारा उपशम होना करगोपशामना है । अथवा अपकर्षरण आदि करणो का अप्रशस्त उपशामना द्वारा उपशम होना करणोपशामना है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इससे भिन्न लक्षण वाली प्रकरणोपशामना है । प्रशस्त और अप्रशस्त परिणामो के बिना जिन कर्म प्रदेशो का उदय काल प्राप्त नही हुआ है उनका उदयरूप परिणाम के विना अवस्थित रहना अकरगोपशामना (अनुदीर्णोपशामना) है । यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
( जयघवला पृष्ठ १८७२ प्रथम पेरा ) परन्तु देशकरगोपशामना मे प्रप्रशस्त परिणामो की निमित्तता है । कहा भी हैससार के योग्य अप्रशस्त परिणाम निमित्तक होने से यह (देश करगोपशामना )
प्रशस्त उपशामना कही जाती है । यह ससार प्रायोग्य श्रप्रशस्त परिणाम निमितक होती है यह प्रसिद्ध नही है क्योकि श्रत्यन्ततीव्र सक्लेश से ही अप्रशस्त उपशामना, निघत्त और निकाचना करणो की प्रवृत्ति देखी जाती है तथा क्षपक