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परिभाषा
श्ररिण और उपशम श्रेणि मे विशुद्ध परिणामो के निमित्त से यह विनाश को प्राप्त हो जाती है, अतः इसका प्रशस्तपना है, इस बात की सिद्धि मे प्रतिबन्ध का प्रभाव है । इस कारण इस प्रकार की जो अप्रशस्त उपशामना [ श्रप्रशस्त परिणाम निमित्तक ] है वह ही "देशकरगोपशामना" कही जाती है ( जयघवल पृष्ठ १८७४ ) इस प्रकार एक तो अप्रशस्त परिणामो को निमित्त कर होती है, दूसरे कुछ कर्म परमाणुत्रो मे ही इसका व्यापार होता है। ऐसी देशकरगोपशामना या श्रप्रशस्त उपशामना सार्थक नाम वाली है । कहा भी है--प्रशस्त उपशामना आदि करणो के द्वारा एक देश कर्म परमाणुश्रो का उदयादि परिणाम के पर मुखी भाव से उपशान्त भाव को प्राप्त होना देशकरगोपशामना है । [ज० ६० १८७२ चरमपेरा ] यहा किन्ही करणो का परिमित कर्म प्रदेशो मे ही उपशान्तपना देखा जाने से इसकी देशकररणोपशामना सज्ञा बन जाती है । इसप्रकार ससार अवस्थामे
प्रशस्त उपशामना, निघत्त और निकाचना आदि करणो के माध्यम से जो परिमित कर्म परमाणु का उपशामनारूप होकर उदय के प्रयोग्य रहना वह देश करगोपशामना है । जबकि सर्वोपशामना मे समस्त कर्मपु ज को अन्तर्मुहूर्त के लिये उदय के प्रयोग्य करना विवक्षित है । यथा - दर्शनमोह की अपेक्षा प्रनिवृत्तिकरण के प्रारम्भिक समयमे प्रशस्त उपशामना, निधत्त, निकाचना की व्युच्छित्ति होने के बाद प्रनिवृत्ति परिणामो से दर्शनमोहनीय के समस्त कर्म परमाण को अन्तर्मुहूर्त के लिये उदय के अयोग्य करना सर्वोपशामना है । यद्यपि दर्शनमोह का उपशम होने पर भी उसमे सक्रमकरण और अपकर्षण करण की प्रवृत्ति पाई जाती है, फिर भी समस्त कर्म परमाणु विवक्षित काल के लिये उदय के अयोग्य बने रहते हैं, अतः इसे सर्वोपशामना मानने मे कोई बाधा नहीं है । इसी प्रकार चारित्र मोह की अपेक्षा अनिवृत्ति करण परिणामो के प्रारम्भिक समय मे प्रशस्त उपशामना, जिघत्त और निकाचित की व्युच्छित्ति होकर श्रनिवृत्तिकरण तथा सूक्ष्म साम्पराय द्वारा सकल चारित्रमोह के कर्म पुज को श्रन्तर्मुहूर्त काल के लिये उदयादि के अयोग्य करना सर्वोपशामना - [ सर्वकररगोपशामना ] है । इसप्रकार श्रकरणोपशामना, देशकररणोपशामना तथा सर्वकरगोपशामना के बारे मे विस्तृत कथन परिभाषा के साथ किया गया । प्रशस्त उपशामना [प्रशस्त करगोपशामना ] अर्थात् सर्वोपशामना यानी सर्वकरगोपशामना मोहनीय कर्म की ही होती है ।