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शब्द
स्थितिकाण्डरुषात
क्षप०
पृष्ठ
स्थितिबंधापसरण
४४,
६२, ६५,
४, १०
१०
( २३ )
परिभाषा
पर उत्तरकर्म प्रकृति स्वमुख से उदय मे नही प्राती, किन्तु स्तिबुक सक्रमण द्वारा उदयरूप स्वातातीय कर्म प्रकृति मे सक्रमण हो जाता है । जैसे क्रोध के उदय के समय अन्य तीन (मान, माया, लोभ) कषायों का स्वमुख उदय न होकर स्तियुक सक्रमण द्वारा कोषरूप सक्रमण हो जाता है और इसप्रकार उन तीन कषायो का द्रव्य क्रोध रूप फल देकर उदय मे आता है ।
विवक्षित स्थिति समूह का घात करना स्थिति काण्डकघात है । यह एक अन्तर्मुहूर्त मे निष्पन्न होता है । विवक्षित कर्म की स्थिति में से ऊपर की कुछ स्थिति समूह के द्रव्य को ग्रहण कर विशुद्धिवश प्रन्तर्मुहूर्त काल द्वारा नीचे के स्थिति समूह के परमाणुओ मे मिला देना तथा ऊपर की स्थिति मे स्थित सकल कर्म द्रव्य का अभाव कर देना स्थितिकाण्डक घात है । जितने काल मे यह स्थितिघात का कार्य किया जाता है वह काल स्थितिकाण्डकोत्कीरण काल कहलाता है तथा जितनी स्थिति का घात करता है स्थितिकाण्डक द्वारा वह स्थितिकाण्डकायाम कहलाता है जैसे अपूर्व करण के प्रथम समय मे जीव के स्थितिकाण्डक का आयाम उत्कृष्टतः सागरोपम पृथक्त्व प्रमाण होता है । अर्थात् प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण जीवस्थितिकाण्डक घात के लिये स्थिति समूह को ग्रहण करता हुधा उत्कृष्टत' इतनी स्थिति को घात के लिये ग्रहण करता है । तथा अन्तर्मुहूर्त मे निष्पद्यमान इस स्थितिकाण्डक के प्रत्येक समय मे जितना द्रव्य नीचे [ अवस्तन स्थितियों ने शीघ्र उदय मे माने वाली स्थितियों मे] देता है, उसे है। इतना विशेष है कि धायु कर्म का स्थितिकाण्डक घात नही होता गा० ७८: धवल ६ / २२४ )
फाली कहते (ल० सा०
अपूर्वकरण के काल मे सख्यात हजार स्थितिकाण्डकपात होते हैं। इसीप्रकार अन्यत्र भी यथागम स्थितिकाण्डकघात का अस्तित्व जानना चाहिये। स्थिति काण्डकघात के बिना कर्मस्थिति का घात असम्भव होता है । ( ववल १२ / ४८६) इतना विशेष है कि केवली समुद्घात के समय समय मे से लोकपूरण समुद्रघात तक के ४ समयो मे, एक एक समय मे एक एक स्थितिकाण्डक घात होता अन्यत्र एक समय मे यह कार्य नही
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है । यह माहात्म्य समुद्घातक्रिया का हो है होता । (क्षपणासार गा० २६५ पृ० २०२ । स्थितिबन्ध के अपसरण ( क्रम से घटना ) को स्थितिबन्धा पसरण कहते हैं । ( अपसरण घटना ) विशेष के लिये देखो लब्धिसार गा० ३९ तथा क्षपणानार गा० ३६५ तथा ज० ६० मूल पृ० १ ५१