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शब्द
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चतुःस्थानीय अनुभागवन्ध
चालीसिया
१८५
जस्थिति
२८०, २६७
तीसिया असचतुक दूरापकृष्टि
१८५
१८ १०७,
( १५ )
परिभाषा दिया जाता है, उन निषेको का नाम गुणश्रेणी निक्षेप है। उन निषेको की सख्या का प्रमाण ही गुणश्रेणी आयाम है। प्रशस्त प्रकृतियो का गुड, खाण्ड, शर्करा और अमृतोपम रूप अनुभाग बन्ध चतु:स्थानीय अनुभाग बन्ध कहलाता है । अप्रशस्त प्रकृतियो मे "चतु स्थानीय" शब्द से नीम, काजीर, विष और हलाहलोपम लेना चाहिये । अथवा घातिया की अपेक्षा लता-दारु-अस्थि-शैल लेना चाहिये । अर्थात् चरित्र मोहनीय (चालिस कोटा कोटी स्थितिबन्ध वाले कर्म चालीसिया कहलाते हैं ) मूल और वृद्धि दोनो को मिलाकर स्थिति बन्ध के पूरे प्रमाण का निर्देश करना। विवक्षित प्रकरणमे यत्स्थिति बन्ध का यही तात्पर्य है। इसमे पाबाधा भी शामिल है । ज० घ० १९१२, (यस्थितिबन्ध मे आबाघा भी गिनी जाती है ध० ११/ ३३६) ज्ञानावरण, दर्शनावरण वेदनीय तथा अन्तराय को तीसिया कहते हैं। अर्थात् 'त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक ।' जिस अवशिष्ट स्थिति सत्कर्म मे से सख्यात बहुभागको ग्रहण कर स्थितिकाण्डकका घात करने पर घात करने से शेष बचा स्थिति सत्कर्म नियम से पल्योपम के असख्यातवे भाग प्रमाण होकर अवशिष्ट रहता है उस सबसे अन्तिम पल्योपम के सख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति सत्कर्म को दूरापकृष्टि कहते हैं । जय धवला पु० १३ पृ० ४५ तात्पर्य यह है कि जब स्थितिकाण्डकघात होते-होते सत्कर्म स्थिति पल्योपम प्रमाण शेष रह जाती है तब स्थितिकाण्डक का जो प्रमाण पहले था वह बदल कर अवशिष्ट स्थिति-सत्कर्म का सख्यात बहुभाग हो जाता है । और इस प्रकार उत्तरोत्तर उक्त विधि से स्थितिकाण्डकघात होते होते जब सबसे जघन्य पल्योपम के सख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति शेष रह जाती है तब वह "दूरापकृष्टि", इस नाम से पुकारी जाती है । यह घटते घटते अति अल्प रह गई है, इसलिये इसे "दूरापकृष्टि" कहते हैं । अथवा शेष रही इस स्थिति से आगे उत्तरोत्तर अवशिष्ट स्थिति के असख्यात बहुभाग असख्यात बहुभाग प्रमाण स्थिति को ग्रहण कर स्थितिकाण्डकघात होता इसलिये इसे "दूरापकृष्टि" कहते हैं। जय धवला पु०१३ पृष्ठ ४७
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