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शब्द
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हिस्थानीय धनुभान २८
नयागमय प्रव
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परिभाषा
ना हो चुका है। उसके जो मोह के उपशम से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह द्वितीयम सम्यमत्व कहलाता है। जै० ल० २ / ५६६
निधि न० मा० मा २०५ से २१५ मे देखनी चाहिये ।
मस्त प्रकृतियों की श्रपेक्षा "लता-दारू" रूप अथवा 'नीम - काजीर' रूप अनु भाग प्रशस्त प्रकृतियो की अपेक्षा "गुड, साण्ड" रूप अनुभाग द्विस्थानीय अनुभाग कहलाता है ।
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नवक अर्थात् नवीन समयप्रवद्ध | जिनका वन्ध हुए थोडा काल हुआ है; सक्रमगादि करने योग्य जो निषेक नही हुए ऐसे नूतन समयप्रवद्ध के निषेक का नाम नवक समयबद्ध है । (गो० क० ५१४ टीका)
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दमोह, १ चारित्रमोहनीय २ की उपशामना श्रादि के समय विवक्षित कर्म के यतिम समय के वध के समय से लेकर चरम द्विचरम शादि एक समय कम दो श्रावती प्रमाण समयप्रवद्ध अनुपशमित अथवा अविनष्ट रह जाते है। उन समयप्रवडो की नवक समयप्रवद्ध सज्ञा है जैसे चारित्रमोहनीय उपशामक के मनिवृत्तिकरण गुणस्थान मे अन्तिमसमयवर्ती सवेदी के एक समय कम दो आवली प्रमाण नवक समय प्रवद्ध अनुपशान्त रहते हैं, पुरुषवेद के जो प्रागे प्रपगतंवेदी । अवस्था में एक समय कम दो आवली काल मे नष्ट होते हैं। ( ज० ० १२/ २८७ ) इसीतरह जैसे मान का उपशामक है तो उसके चरम समय बन्ध के समय एक समय कम दो प्रावली प्रमाण समय प्रवद्ध अनुपशान्त रह जाते हैं । बाकी सब मानद्रव्य उपशान्त हो जाता है (उच्छिष्ठावली गौरा है) यह एक समय कम दो आवली प्रमाण नवक बद्ध द्रव्य मायावेदक काल के भीतर एक समय कम दो धावलीकाल के द्वारा पूर्ण रूप से उपशमाये जाते हैं क्योकि प्रत्येक समय मे एक-एक समय प्रबद्ध के उपशामन क्रिया की समाप्ति देखी जाती है । ज० घ० १३/३०१-३०२ इसी तरह क्रोध, माया, लोभ आदि के लिये भी श्रागमानुसार कहना चाहिये। इतना विशेष है कि नयक बन्ध का अन्य काल से एक श्रावली तक तो, बन्धावति सकल करणो के अयोग्य होने से कुछ नही होता तथा बन्धावली के बाद उनका उपशमन काल एक नावली प्रमारण होता है ( इसप्रकार एक नवक समय
१ जयधवल १२ / २८६-६०
२० स० गा० २६२, २६६, २७१, २७६, २५०, २६५ सावि