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परिभाषा यायाम । जहा उदयावलि के ऊपर प्रथम निषेक से अवस्थित गुणश्रेणी रचना हो तो वह उदयावलि वाह्य अवस्थित गुणश्रेणी प्राय म कहलाता है तथा वही उदय रूप वर्तमान समय से ही गुण श्रेणी पायाम प्रारम्भ हो जावे तो वह गुणश्रेणी आयाम, उदयादि कहा जाता है । जैसे सम्यक्त्व की ८ वर्ष स्थिति सत्कर्म से पूर्व उदयावलि बाह्य गलितावशेष गुणश्रेणी थी, किन्तु ८ वर्प स्थिति सत्कर्म से लगाकर ऊपर सर्वत्र उदयादि अवस्थित गुणश्रेणी आयाम है । (पृ० ११६-१२०) ऐसे ही उतरने वाला मायावेदक जीव उदयरहित लोभत्रय का द्वितीयस्थिति से अपकर्पण करके उदयावलि बाह्य अवस्थित गुण श्रेणी करता है । (ल०सा० ३१७). सम्यक्त्व प्रकृति के अन्तिम काण्डक की प्रथम फालि के पतन समय से लेकर विचरम फालि के पतन समय पर्यन्त उदयादि गलितावशेष गण श्रेणी आयाम रहता है। ल० सा• गा० १४३ पृ० १३० इसप्रकार चारो प्रकारो की गुणश्रेणियो के उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं। अन्यत्र भी गुणश्रेणी-विन्यास यथा प्रागम जानना चाहिए । विशेष इतना कि आयु कर्म का गुणश्रेणी निक्षेप नही होता। शेष सब कर्मों का होता है । (देखो प्रकरणोपशामना मे) जिसके द्वारा उपयुक्त होता है उसका नाम उपयोग है। अर्थ के ग्रहणरूप प्रात्मपरिणाम को भी उपयोग कहते हैं। उपयोग के साकार और अनाकार के भेद से दो प्रकार है। इनमे से साकार तो ज्ञानोपयोग और अनाकार दर्शनोपयोग है। करण परिणामो के द्वारा नि:शक्त किये गये दर्शनमोहनीय के उदयरूप पर्याय के विना अवस्थित रहने को उपशम कहते है। उपशम करने वाले को उपशामक कहते हैं । ज० घ०१२/२८० सकल चारित्र मोहनीय के उपशम से जो चारित्र उत्पन्न होता है उसे उपशमचारित्र कहते हैं । त० सू० २/३ जिस भावली मे उपशम करना पाया जाय उसे उपशमावली कहते हैं । प्रशस्त और अप्रशस्त परिणामो के द्वारा कर्म प्रदेशो का उपशान्त भाव से रहना करणोपशामना है। अथवा करणो की उपशामना को करणोपशामना कहते हैं । अर्थात् निधत्ति, निकाचित प्रादि ८ करणो का प्रशस्त उपशामना के द्वारा उपशान्त करने को करणोपशामना कहते हैं। क. पा० सु० पृ. ७०८
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उदीर्ण उपयोग
उपशम-उपशामक ७१ (दर्शनमोह की अपेक्षा)
उपशम चारित्र
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उपशमावली करणोपशामना
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