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क्षपरणासार
गाथा ३८६-८८
चडणे णामदुगाणं पढमो पलिदोवमस्स संखेज्जो । भागो ठिदिस्स बंधो हेट्ठिल्लादों भसंखगुणो ॥ ३८६ ॥
अर्थः--उससे चढनेवालेके नाम - गोत्रकर्मका पल्य के सख्यातवेभागमात्र हुआ प्रथम स्थितिवन्ध नीचेके अघातित्रयके स्थितिबन्धसे असख्यातगुणा है ( ८५ ) । '
विशेषार्थः - यहां " नाम गोत्रका पल्यके सख्यातवेभाग मात्र हुआ प्रथम स्थितिबन्ध" ऐसा कहनेपर जहा पल्योपम स्थितिबन्ध से सख्यात बहुभाग घटाकर पल्य के सख्यातवेभागप्रमाण प्रथम स्थितिबन्ध उत्पन्न हुआ वह ग्रहणकरना चाहिए । तीसरा पढमो पलिदोषम संखभागठिदिबंधों । मोहस्सवि दोरिण पदा विसेस हियक्कमा होंति ॥ ३८७॥
प्रर्थः - चढ़नेवाले के तीसिया चतुष्कका पत्योपमके सख्यातवेभागवाला प्रथमस्थितिबन्ध (८६) तथा मोहनीयकर्मका पल्योपमके संख्यातवेभागवाला प्रथम स्थितिबध (८७) ये दोनों स्थान विशेष अधिक क्रमवाले है ।
विशेषार्थ - तीसिया चतुष्क अर्थात् तीस कोड़ा कोड़ीसागरकी स्थितिबन्धवाले चार कर्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तरायका पत्योपमके सख्यातवेभागप्रमाण प्रथम स्थितिबन्ध नाम गोत्रके पूर्वोक्त बन्धसे विशेष अधिक है विशेषका प्रमाण अपनी स्थितिवन्ध के अर्द्ध भाग प्रमाण है ( ८६ ) । इससे मोहनीयकर्मका पल्योपमके संख्यातवे भागप्रमाण प्रथम स्थितिबन्ध विशेष अधिक है, विशेषका प्रमारण अपने बन्धके त्रिभाग प्रमाण है ( ८७ ) | क्योकि ये दोनो पद विशेष अधिक क्रमवाले है तथा नामगोत्र वीसिया हैं और ज्ञानावरणादि तोसिया है । प्रत वीसिया से तीसिया विशेष अधिक है गुणाकाररूप नही है | चारित्रमोहनीय चालीसिया है जो ज्ञानावरणादि तीसियासे विशेष अधिक है, क्योकि तीससे चालीस विशेष अधिक है गुणकाररूप नहीं है ।"
१ जयधवस मूल पृ० १६३६ ।
२. जयधवल मूल पृ० १९३६ ।
ठिदिखंडयं तु चरिमं बंधोंसरणटिट्ठदी य पल्लई । पल्लं चडपडवादरपढमो चरिमो य ठिदिबंधो ॥ ३८८ ॥