Book Title: Labdhisara Kshapanasara
Author(s): Ratanchand Mukhtar
Publisher: Dashampratimadhari Ladmal Jain

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Page 621
________________ ( ५ ) शब्द पृष्ठ परिभाषा अधःप्रवृत्तकरण २६ उत्कर्षण मे--प्रव्याघात दशा मे जघन्य प्रतिस्थापना एक प्रावली प्रमाण और प्रतिस्थापना उत्कृष्ट आबाघा प्रमाण होती है। किन्तु व्याघात दशा मे जघन्य प्रतिस्थापना प्रावली के असख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट प्रतिस्थापना एक समय कम एक प्रावली प्रमाण होती है। ज० घ०७/२५० अपकर्षण मे -एक समय कम भावली, उसके दो विभाग प्रमाण जघन्य अतिस्थापना होती है तथा उत्कृष्ट प्रतिस्थापना एक प्रावली प्रमाण होती है। यह अव्याघात विषयक कथन है। ल० सा० गा० ५६-५८ व्याघात की अपेक्षा प्रतिस्थापनाउत्कृष्ट समयाधिक अन्तः कोटाकोटिसागर सागर से हीन उत्कृष्ट कर्मस्थिति प्रमाण होती है। ल० सा० गा० ५६-६० ज०५० ८/२५० प्रथम करण मे विद्यमान जीव के करणो [परिणामो] मे, उपरितन समय के परिणाम पूर्व समय के परिणामो के समान प्रवृत्त होते हैं वह अधःप्रवृत्तकरण है। इस करण मे उपरिम समय के परिणाम नीचे के समयो मे भी पाये जाते हैं, क्योकि उपरितनसमयवर्ती परिणाम अधः अर्थात् अधस्तनसमय के परिणामो मे समानता को प्राप्त होते हैं, अत: "अधः प्रवृत्त" यह सज्ञा सार्थक है। घवल ६/२१७ जिसका कही पर भी अवस्थान-ठहरना न हो उसे अनवस्था कहते हैं । यह एक दोष है। अष्टसहस्री पृ० ४४४ [आ० ज्ञानमतीजी] कहा भी है-मूलक्षतिकरीमा रनवस्था हि दूषणम् । वस्त्वनन्त्येऽप्यशक्ती च नानवस्था विचार्यते ॥१॥ अर्थात् जो मूल तत्त्व का ही नाश करती है वह अनवस्या कहलाती है, किन्तु जहा वस्तु के अनन्तपने के कारण या बुद्धि की असमर्थता के कारण जानना न हो सके वहा अनवस्था नही मानी जाती है । मतलब जहा पर सिद्ध करने योग्य बन्नु या धर्म को सिद्ध नहीं कर सके और आगे-मागे अपेक्षा तथा प्रश्न या आकाक्षा बढती ही जाय, कही पर ठहरना नहीं होवे, वह अनवस्था नामक दोष यहा जाता है । प्र० क० मार्तण्ड पृ. ६४८-४६ [अनु० प्रा० जिनमतीजो] एर पद द० स० ५७/३७१/३६२, प्र० र• माला पृ० १७१

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