________________
गाथा ३५१ ]
[ २८६
स्थानको प्राप्त मनुष्य नरकगति, तिर्यचगति और मनुष्यगतिको प्राप्त नही होता, किन्तु नियम से देवगतिको प्राप्त होता है । पूर्वमें जिसने आयुका बन्ध नही किया उसका यहापर मरण सम्भव नही है' ।
क्षपणासार
अब उपशमश्र णिसे उतरते हुए जीवके सासादनकी प्राप्तिके प्रभावका कथन करते हैं—
उवसमसेढीदो पुरा दिरणो सासणं ण पाउणदि । भूद बलिया इम्मिलसुत्तस्स फुडोवदेसेण ॥ ३५१ ॥
अर्थः-उपशमश्र ेणिसे उतरता हुआ सासादनगुणस्थानको प्राप्त नही होता ऐसा श्री भूतवलीमुनिनाथ द्वारा विरचित निर्मलसूत्रका प्रगट उपदेश है ।
ર
विशेषार्थः — श्री गुणधराचार्यने गाथानों द्वारा कषाय पाहुड़की रचना की है जिसपर यतिवृषभाचार्यने चूर्णिसूत्रकी रचना की । उस 'चूर्णिसूत्रके अनुसार उपशम श्रेणिसे उतरता हुआ सासादनगुणस्थानको प्राप्त होता है और श्री वीरसेन आचार्यने भी कषायपाहुड़ पर लिखी गई अपनी जयधवला टीकामे पूर्ण समर्थन किया है जैसा कि जयधवल पु० ४ पृ० २४ व पु० १० पृ० १२४ से स्पष्ट है । श्री धरसेनाचार्यको द्वादशांगका एकदेश ज्ञान था । श्री पुष्पदन्त भूतबलो प्राचार्योंको द्वादशागके सूत्र श्रीधरसेनाचार्यसे प्राप्त हुए, जिनको उन्होने षट्खण्डागमरूपसे लिपिबद्ध किया उसपर भी वीरसेनाचार्यने ही धवला टीका रची । उस षट्खण्डागमका प्रथमखण्ड जीवस्थान है । तत्सम्बन्धी सत् प्ररुपणासूत्रोको तो श्री पुष्पदन्ताचार्यने लिपिवद्ध किया और शेष सूत्रोको श्री भूतबली प्राचार्यने लिपिबद्ध किया । जीवस्थान सम्बन्धी अन्तरानुगमका ७वां सूत्र इसप्रकार है—“ सासणसम्मादिट्ठिणमतरं केवचिर कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असखेज्जदि भागो ।” सासादन सम्यग्दृष्टि जीवका अन्तर कितने कालतक होता है ? एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर पल्योपमके
१. जयधवल मूल पृ० १६१६-१७ | क० पा० सुत्त पृ० ७२७ सूत्र ५४४-४६ ।
२. ६० पु० ५ पृ० ११ ।
३. जइसो कसाय उवसामरणादोपरि वदिदो दंसणमोहरणीय उवसंतद्धाए अचरिमेसु समएसु श्रासाणं गच्छइ तदो आसारणगमरणादो से काले परणवीसं पयडीओ पविसंति । ( ज. घ. पु. १० पृ. १२३ )