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[ गाथा ३६९-७०
सूक्ष्मसाम्परायिककी प्रथम स्थिति ये तीनो परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक (११) ।
विशेषार्थ :- इससे गिरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायके लोभका गुणश्रेणि आयाम आवलीमात्र विशेष अधिक है, क्योकि सूक्ष्मसाम्परायके कालसे आवलिमात्र ज्यादा लोभका गुण रिगनिक्षेप होता है (१०) । उससे आरोहक सूक्ष्मसाम्परायका काल, सूक्ष्मकृष्टि उपशमावनेका काल और सूक्ष्मसाम्परायका प्रथम स्थितिप्रायाम यथासम्भव अन्तर्मुहूर्तमात्र विशेष अधिक है । ये तीनो परस्पर तुल्य हैं। अधिकताका कारण यह है कि अवरोह से आरोहकका प्रत्येककाल अधिक है ( ११ ) ।'
क्षपणासार
किट्टीकरणद्धहिया पडवादरलोह वेदगडा हु ।
संखगुणा तस्सेव य तिलोहगुण से डिणिक्खे || ३६६ ॥
अर्थ - कृष्टिकरणकाल विशेष अधिक है ( १२ ) । उतरनेवालेका बादरलोभ वेदककाल सख्यातगुणा है (१३) । उसीके तीनो लोभका गुणश्र ेणिनिक्षेप विशेष अधिक है (१४) ।
विशेषार्थ :- उससे सूक्ष्मकृष्टिकरनेका काल विशेष अधिक है । यद्यपि यह काल लोभवेदककालका विभाग है तथापि उपरिम तिहाई काल (सूक्ष्मसाम्परायकाल) से निचला ( कृष्टिकरणकाल ) विशेष अधिक है ( १२ ) । उससे गिरनेवाले बादर साम्परायके बादरलोभका वेदककाल संख्यातगुणा है, क्योकि बादरलोभ वेदककाल, लोभवेदककालका द्वि त्रिभाग ( 3 ) है । श्रतः पूर्व के त्रिभागसे दो गुणा है (१३) । उससे गिरनेवाले के लोभवेदककालसे तीन लोभकी गुणश्र रिण आयाम आवलिमात्र अधिक है, क्योकि वेदक कालसे प्रावलिप्रमाण अधिक कालसे गुणश्रेणि निक्षेप होता है (१४) ।
चडवादरलोहस् य वेद्गकालो य तस्स पढमठिदी । पडलोंदवेदगडा तस्सेव य लोहपढमठिदी ॥ ३७० ॥
अर्थ —चढनेवालेके वादरलोभ वेदककाल विशेष अधिक है (१५) । उसीको
१. ज ६ मूल पृ १६२८-२६ ।
२ ज. मूल पृ० १६२८ ।