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गाथा ३६१ ]
क्षपणासार
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किन्तु मायोदयसे श्रेणि चढ़कर उतरनेवाले के तीनप्रकारकी मायाका और तीन प्रकारके लोभका गुणश्रेणि निक्षेप ज्ञानावरणादि कर्मो के सदृश होकर गुणश्र णिश्रायाम गलितावशेष होता है, यह यहापर विभिन्नता है । तथा मायाका वेदन करते हुए ही शेष (मान- क्रोध) कषायों का अपकर्षण करते है, किन्तु उनका गुणश्रेणिनिक्षेप उदयावलिसे बाहर होता है ।
लोभके उदयसे श्रेणि चढनेवालेकी विभिन्नता इसप्रकार है— अन्तरकरणके प्रथमसमयमें लोभकी प्रथमस्थितिको करता है । क्रोधसे रिण चढनेवाले के जितनी क्रोध की मानकी, माया की और लोभकी प्रथम स्थिति होती है लोभोदयसे श्र ेणि चढ़नेवालेके उतनी सज्वलनलोभकी प्रथम स्थिति होती है । शेष संज्वलन कषायोकी प्रथम - स्थिति नही होती, क्योकि उनका उदय नही है । सूक्ष्मसाम्पर थिक लोभके प्राप्त होने मे और उतरनेमे कोई विभिन्नता नही है, किन्तु गिरकर अनिवृत्तिकरण प्रवेशके प्रम समय में विभिन्नता है । श्रनिवृत्तिकरणमे प्रवेश करते ही लोभका अपकर्षणकर ज्ञानावरणादिकर्मोंकी गुणश्रेणिके तुल्य श्रायामवाला गुणश्रेणि निक्षेप करता है । जिस कषायोदय के साथ श्रेणि चढता है गिरनेपर जब उस कषायका अपकर्षण करता है तो गुण णिनिक्षेप श्रायाम ज्ञानावरणादिकी गुणश्र णिके तुल्य होकर अन्तर पूरा जाता है । लोभका वेदन करते हुए शेष कषायों का अपकर्षण करता है । सर्वकषायोका गुणश्र ेणि निक्षेप ज्ञानावरणादि कर्मोके गुणश्र णिनिक्षेपके तुल्य है । शेष शेष में निक्षेपण होता है अर्थात् गलितावशेष गुणश्र णि होती है । क्रोध कषायके उदयके साथ श्र ेणि चढनेवाले और उतरनेवालेसे शेष कषायोके साथ श्रेणि चढनेवाले व उतरनेवाले के यह विभिन्नता है ।
थी उदयस्त य एवं अवगदवेदो हु सत्त कम्मले । समसामदि संस्दए चडिदस्त वोच्छामि ॥ ३६१ ॥
अर्थः—स्त्रीवेदोदयसे श्रेणिपर आरोहण करनेवाला जीव अपगतवेदो होकर सात नोकषायों को एकसाथ उपशमाता है । नपु सक वेदोदयसे श्रेणि चढनेवालेका आगे कथन किया जावेगा ।
विशेषार्थः—स्त्रीवेदोदयसे चारोंकषायो सहित चढ़नेवालेको प्ररूपणा पुरुष