Book Title: Labdhisara Kshapanasara
Author(s): Ratanchand Mukhtar
Publisher: Dashampratimadhari Ladmal Jain

View full book text
Previous | Next

Page 587
________________ [२८७ गाथा ३४८] क्षपणासार विशेषार्थः-उपशमश्रेणि पर आरोहण करते हुए अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथमसमयसे लेकर चारित्रमोहकी २१ प्रकृतियोका सर्वोपशम करके उतरते हुए पुनः प्राप्त अपूर्वकरणगुणस्थानके अन्तिमसमयतक जो कालका प्रमाण, उसकालसे संख्यात गुणित कालतक लौटता हुअा अध प्रवृत्तकरणके साथ द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको पालता है । अर्थात् उपशमश्र रिण चढने और उतरने में जितना काल लगता है उससे भी सख्यातगुणाकाल अप्रमत्तसयत नामक सातवे गुणस्थानका काल है । इस गाथाके द्वारा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके कालका महत्त्व बताया गया है।' तस्सम्मत्तद्धाए असंनम देससंजमं वापि । गच्छेज्जावलिछक्के लेसे सासणगुणं वापि ॥३४८॥ अर्थ--इस द्वितीयोपशमसम्यक्त्वके कालमें गिरकर असंयमको प्राप्त हो जावे अथवा देशसयमको प्राप्त हो जावे अथवा छह प्रावलियोके शेष रहनेपर सासादनगुणस्थानको भी प्राप्त हो जावे । विशेषार्थ-उपशमश्रोणिसे उतरनेके पश्चात् अप्रमत्त-प्रमत्त गुणस्थानमें भ्रमण करते हुए यदि अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण दोनोप्रकारको कषायोका उदय हो जावे तो असयत नामक चतुर्थगुणस्थानमें तथा यदि मात्र प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय होजावे तो देशसयम नामक पंचमगुणस्थानमे अथवा देशसयमसे असंयम को या असयमसे देशसयमको अर्थात् दोनो गुणस्थानोको प्राप्त हो जावे । अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके कालमे उत्कृष्ट छह प्रावलिया और जघन्य एकसमय शेष रहने पर यदि परिणामोके कारण अनन्तानुबन्धी कषायकी सयोजना होकर उदय हो जावे तो सासादनगणस्थानमें आ जावे । जिसने विसंयोजनाके द्वारा अनन्तानुबन्धी चतुष्क को नि सत्त्व कर दिया है उसके भी परिणाम विशेषके कारण शेष कषायोका द्रव्य उसीसमय अनन्तानुबन्धी कषायरूपसे परिणमनकर अनन्तानुबन्धीकषायका उदय हो जाता है और वह सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो जाता है । यह श्री यतिवृषभाचार्यका १. ज. ध मू. पृ. १६१५ सूत्र ५४१ । घ. पु ६ पृ ३३१ । ध. पु ५ पृ १४ पर अप्रमत्तगुणस्थानके अन्तरके कथनसे इस गाथाकी पुष्टि होती है । २. जयधवल मूल पृ १९१६ सूत्र ५४२-४३ । । ३. ज. प. पु. ४ पृ. २४, ज. ध पु १० पृ १२४ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656