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गाथा ३४५ ]
क्षपणासार
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अथानन्तर स्वस्थानसंयमीके गुणश्रेणि आयाम सम्बन्धी तीन स्थानों का कथन करते हैं
सठाणे तावदियं संखगुणणं तु उवरि चडमाणे । विरदावरदादिमुहे संजगुणं तदो तिविहं ॥ ३४५ ॥
अर्थः-उपशमश्र णिसे उतरनेवाले के स्वस्थान संयंत होनेपर भी गुणश्रेणि आयाम उतना ही रहता है । पुन ऊपर चढनेपर गुणश्र णि आयाम संख्यातगुणाहीन हो जाता है । विरताविरत के अभिमुख होनेपर गुणश्रेणिश्रायाम सख्यातगुणा हो जाता है ।
विशेषार्थः- उपशमश्र णिसे उतरनेवालेके अधःप्रवृत्तकरण के प्रथमसमयमे जो अन्तर्मुहूर्तप्रमाण वाला गुणश्रेणि निक्षेप ( आयाम ) था वह अन्तर्मुहूर्त कालतक अवस्थित रहता है, क्योकि वृद्धि हानिके कारणोका प्रभाव है, किन्तु प्रदेशाग्रकी अपेक्षा नियमसे हीयमान है कारण कि विशुद्धि में अनन्तगुणी हानिके कारण परिणाम हीयमान होते है । अन्तर्मुहूर्तकाल बीत जानेके पश्चात् गुणश्र णिश्रायाम कथचित् वृद्धिको प्राप्त होता है, कथचित् घटता है और कथचित् प्रवस्थित रहता है । ग्रधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक अवस्थित गुणश्र णिश्रायाममे गुणश्रेणि निक्षेप करके उसके पश्चात् गुणश्र णिनिक्षेपके आयाममे वृद्धि हानि और अव स्थान इन तीनमे से कोई एक अवस्था होती है । स्वस्थान अप्रमत्तसयत होकर प्रमत्तसंयत-अप्रमत्तसंयत्त गुणस्थानोमे भूलनेवालेके अवस्थित प्रायामवाला गुणश्रेणि निक्षेप होता है । संयमासयम गुणस्थानको गिरकर प्राप्त होनेवाले के गुणश्रेणिनिक्षेपका आयाम संख्यातगुणवृद्धिके द्वारा बढ जाता है । नीचे गिरकर श्रागम - प्रविरोधसे पुन. उपशम या क्षपकश्र ेणि चढनेवाले के पूर्व गुणश्र णिशीर्षसे नीचे सख्यातगुणहानिके द्वारा हीन होकर गुण णि निक्षेपका प्रायाम होता है । इसीप्रकार सभी गुणश्रेणिनिक्षेपोके आयामके विषय मे समझना चाहिए ।
प्रदेश की अपेक्षा वृद्धि हानि और अवस्थान विषय विभागको जानकर लगा लेना चाहिए । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालको छोड़कर उसके आगे स्वस्थान सयत भावसे वर्तन नही करनेवालेके संक्लिष्ट विशुद्ध परिणामो के वशसे वृद्धि हानि और अवस्थान