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क्षपणासार
गाथा ३३६-४० ]
[२७६ वेदनीय व अन्तरायका तीन बटे सात (8) तथा मोहनीयकर्मका चार बटे सात (3) भाग स्थितिवन्ध होता है।
विशेषार्थः-इसप्रकार सख्यातगुणवृद्धिके क्रमसे बढता हुआ सभी कर्मोके पल्यके संख्यातवेभागप्रमाण संख्यातहजार स्थितिबन्ध बीत जानेपर वृद्धिगत अपूर्वस्थितिवन्ध पल्यके सख्यातवेभागप्रमाण होता है । पल्यके असंख्यातवेभागप्रमाण स्थितिबन्धों में संख्यातगुणी वृद्धि होते हुए जिस कालमे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सम्पूर्ण पल्यप्रमाण हो जाता है उससमय पल्यके सख्यातवेभागप्रमाणवाले पूर्व स्थितिबन्धमें पत्यके संख्यातबहुभागप्रमाण अपूर्ववृद्धि होती है, अन्यथा पल्यप्रमाण स्थितिबन्धकी उत्पत्ति सम्भव नही है। उससमय ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मोके स्थितिवन्धमे अपूर्ववृद्धि होकर कुछअधिक चतुर्थभागकम पल्यप्रमाण अर्थात् कुछकम ३ अथवा देशोन तीन चौथाई पल्यप्रमाण ज्ञानावरणादिके स्थितिबन्धकी वृद्धि होती है। पल्योपमके चारभाग करके उनमेसे एक चतुर्थभागको निकालकर शेष तीन चतुर्थभागको ग्रहण करनेपर ज्ञानावरणादि चारकर्मोके तात्कालिक स्थितिबन्धका प्रमाण होता है। इसका कारण यह है कि चालीस (४०) कोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिवाले मोहनोयकर्मका यदि एक पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तो तीस कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिवाले ज्ञानावरणादि कर्मोका कितना स्थितिबन्ध होगा |४० | १ | ३०| इसप्रकार त्रैराशिक करनेपर उसका प्रमाण ३ पल्य प्राप्त होता है। इस तीन चतुर्थभागमे से पूर्व स्थितिबन्धके प्रमाण पल्यके सख्यातवेभागको घटानेपर कुछ कम पल्यका तीन बटा चार (३) शेष रहता है, यही यहाकी वृद्धिका प्रमाण है। इसीप्रकार त्रैराशिक क्रमसे नाम व गोत्रका तत्कालिक स्थितिबन्ध अर्धपल्यप्रमाण होता है। इसमेंसे पल्यके सख्यातवेभागप्रमाण पूर्व स्थितिबन्धको घटानेपर कूछकम अर्धपल्यप्रमाण वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है । जिससमय यह अपूर्ववृद्धि होती है उस समय मोहनीयकर्मका ज-स्थितिबध पल्योपमप्रमाण, ज्ञानावरणादि चार कर्मो का जस्थितिबन्ध चतुर्थभागसे हीन पल्योपमप्रमाण, नाम व गोत्रका ज-स्थितिबन्ध अर्धपल्योपमप्रमाण होता है ।
शङ्का-ज-स्थितिबन्ध किसे कहते है ?
१. ज. ध. मूल . ९६१०-११ सूत्र ५१६-५२२ ।