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क्षपणासार
[गाथा ३३६-३४० विशेषार्थ:-जहासे लेकर नाम-गोत्र आदि कर्मोका स्थितिवन्ध प्रथमवार असख्यातवर्षका होता है वहासे लेकर जबतक पल्यके असख्यातवेभाग स्थितिबन्ध नही होता इस अन्तरालमे अन्य-अन्य स्थितिबन्ध पुन. पुन. असख्यातगुणवृद्धिसे वढता है, क्योकि वहापर पर्यायान्तर असम्भव है । इस क्रमसे सातो ही कर्मोका स्थितिवन्ध एक साथ पल्यके असख्यातवेभागप्रमाण होकर पल्यके सख्यातवेभागप्रमाण हो जाता है।
शंका-श्रेरिण चढनेवालेके सातोकर्मोका दूरापकृष्ट स्थितिवन्ध क्रमसे हुआ था, किन्तु उतरनेवालेके सातोकर्मोका स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवेभागसे सख्यातवेभागप्रमाण होना एक साथ कैसे सम्भव है।
____समाधान-ऐसी शका नही करनी चाहिए, क्योकि श्रेणिसे उतरनेवालेके परिणाम-माहत्म्यसे सातकर्मोंका एकसाथ पल्यके असख्यातवेभागसे पल्यके सख्यातवेभाग होनेमे विरोधका अभाव है। इस स्थलसे लेकर आगे प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर अन्य-अन्य स्थितिबन्ध सख्यातगुणित क्रमसे होते है, क्योकि पल्यके संख्यातवेभाग स्थितिबन्ध होनेके पश्चात् सख्यातगुणवृद्धिके अतिरिक्त पर्यायान्तर असम्भव है ।'
मोहस्स य ठिदिबंधो पल्ले जादे तदा दु परिवड्डी । पल्लस्स संखभागं इगिविगलासण्णिबंधसमं ॥३३६॥ मोहस्त पल्लबंधे तीसदुगे तत्तिपादमद्धं च। ' दुतिचरुसत्तमभागा वीसतिये एयवियलठिदी ॥३४०॥
अर्थः-मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध पल्यप्रमाण हो जानेपर स्थितिबन्धमें पल्यके सख्यातवेभाग वृद्धि होती है । पुन क्रमसे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असज्ञी पचेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होजाता है । मोहनीयकर्मका पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध होनेपर तीसिय ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तराय ) कर्मोका स्थितिबन्ध ३ पल्य अर्थात् पौन पल्य और दोकर्म ( नाम-गोत्र ) का स्थितिवन्ध अर्ध पल्यप्रमाण होता है। एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियकी स्थितिके समान स्थितिवन्ध होनेपर नाम-गोत्रका दो बटे सात (3) भाग ज्ञानावरण, दर्शनावरण, १ जय यवल मूल पृ० १६१० सूत्र ५१३-५१५ ।