Book Title: Labdhisara Kshapanasara
Author(s): Ratanchand Mukhtar
Publisher: Dashampratimadhari Ladmal Jain

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Page 582
________________ २८०] क्षपणासार | गाथा ३४१ समाधान - अावाधा सहित स्थितिको ज-स्थिति' कहते है। इस स्थलसे ग्रति मोहनीयकर्मका पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध होने के पश्चात् प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर तबतक पल्योपमके सख्यातवेभागसे वृद्धि होती है जबतक जितना अनिवत्तिकरणकाल शेप है और सर्व अपूर्वकरणकाल है । अर्थात् अनिवृत्तिकरणका संख्यातबहुभागप्रमाण काल और अपूर्वकरणका सर्वकाल शेष है। पल्यके स्थितिबन्धके पश्चात नख्यातहजार स्थितिवन्धोके द्वारा वृद्धिको प्राप्त, अनिवृत्तिकरणकालमे, मोहनीयकर्म का स्थितिवन्ध एकसागरके चार बटे सात (X) एकेन्द्रियके स्थितिबन्ध सदृश हो जाता है। शेप कर्मोका अपने-अपने प्रतिभागसे एकेन्द्रियके समान बन्ध होता है। अर्थात् ज्ञानावरणादि चारकर्मोका एकसागरके सात भागमे से तीनभाग प्रमाण ( 3 सागर) तथा नाम व गोत्रकर्मका एकसागरके सातभागोमेसे दोभाग प्रमाण (२ सागर) स्थितिवध होता है । इसी क्रमसे स्थितिवध पुन बढ़ता हुआ यथाक्रम द्वीन्द्रियके समान, श्रीन्द्रियके समान, चतुरिन्द्रियके समान और असज्ञोपचेन्द्रियके समान २५, ५०, १००, १००० सागरके , ३, ३ प्रमाण हो जाता है। यह सब अनिवृत्तिकरणकालके भीतर ही हो जाता है। अब अवरोहक अनिवृत्तिकरणके चरमसमयका स्थितिबन्ध कहते हैंतत्तो अणियट्टिस्त य अंतं पत्तो हु तत्थ उदधीणं । लक्खपुधत्तं बंधो ले काले पुवकरणो हु ॥३४१॥ अर्थ --उसके पश्चात् श्रेणिसे गिरता हुआ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अत तो प्राप्त हो जाता है उससमय लक्षपृथक्त्वसागरका स्थितिबन्ध होता है पुनः अनन्तरनमयमे अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है । १ प्रर्यात वृद्धिसहित पूरा स्थितिवन्ध । अथवा सवृद्धि, मूलस्थितिबन्ध ज-स्थितिबन्ध ( जयघवल गल प १९१२) • "माम उस्कमो द्विदिवघो विसेसाहिनो ॥ २२७ । जििट्ठदिवधो विसेसाहिलो ॥ २८८ ।। रेनियनोग र सग-प्राबाधामेत्तण । प्रसादस उकसाढदिवघो विसेसाहिमो ।। २३१ ।। -रिया विममाहियो ॥२३२॥ केत्तियमेत्तेण ? तिण्णिवाससहस्समेत्तण। जट्ठिदिवघो नाम मायाराम माहिद" (घ० पु० ११ १.० ३३६-३४०-३४१ ) • समान मान० १६१२ ५२३-५२५ ।

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