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२६६ ] क्षपणासार
३२२-३२३ ओदरगकोहपढमे संजलणाणं तु अट्टमासठिदी। छण्हं पुण वस्साणं संखेजसहस्तवस्ताणि ॥३२२॥
अर्थः-उतरनेवालेके क्रोध उदयके प्रथमसमयमे सज्वलन क्रोधादि चार कषायोका आठमास और छहकर्मोका सख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिवन्ध होता है ।
विशेषार्थः-उपशमणि चढनेवालेके क्रोध वेदककालके अन्तिम समयमे स्थितिबन्ध होता था उससे दोगुणा गिरनेवालेके क्रोधवेदकके प्रथमसमयमे होता है। वह स्थितिबन्ध संज्वलन चतुष्कका आठ मास और शेष कर्मोका सख्यातहजार वर्पप्रमाण है। संख्यातहजार स्थितिबन्ध होजाने अर्थात् अन्तर्मुहूर्त नीचे उतर जानेपर क्रोध वेदक ( अवेदी क्रोधवेदक ) के अन्तिमसमयमे मोहनीय अर्थात् चारकषायोका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम ६४ वर्ष होता है, क्योकि उपशमणि चढनेवालेके क्रोध उपशामकके प्रथमसमयमे अन्तर्मुहूर्तकम ३२ वर्ष होता था उसका दोगुणा अन्तर्मुहूर्तकम ६४ वर्ष होता है। उसी चरमसमयमे शेषकर्मोंका स्थितिबन्ध सख्यातहजारवर्प प्रमाण होता है वही मोहनीयकर्मके चतुर्विधबधका अन्तिमसमय है ।'
___ अव अवरोहक नवमगुणस्थानवर्ती के पुरुषवेदोदय कालमें होनेवाली क्रियाविशेषको ४ गाथाओं में बताते हैं--
ओदरगपुरिसपढमे सत्तकसाया पणउवसमणा । उणवीसकसायाणं छक्कम्माणं समाणगुणसेढी ॥३२३॥
अर्थः-पुरुषवेदमें उतरनेके प्रथमसमयमे ( स्त्री-नपु सकवेदके अतिरिक्त ) सात नो कषायकी प्रशस्तोपशामना नष्ट हो जाती है । उन्नीस ( १२ कषाय और ७ नोकषाय ) कषायोको गुणश्रोणि ज्ञानावरणादि छहकर्मोकी गुणश्रेणिके समान हो जाती है।
विशेषार्थः-मोहनीयकर्मके चतुर्विधबन्धके अन्तिमसमयमे ही अपगतवेद पर्यायका व्यय हो जानेपर अनन्तरसमयमे सवेदभागका वर्तन हो हानेसे पुरुषवेदका उदय व वन्ध होने लगता है अर्थात् मोहनीयका पाचप्रकृति बन्धका प्रथमसमय होता
१. ज घ. मूल पृ. १९०२ सूत्र ४४८-४५२ ।