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गाथा ३२४-३२६ ]
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है । पुरुषवेद सहित छह नोकषायकी प्रशस्तोपशामना नष्टहो जानेसे अनुपशान्तभाव में संक्रमण, उत्कर्षण आदि होने लगते है । उससमय हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और पुरुषवेद इन सात नोकषायोके कर्माशोका अपकर्षण करके पुरुषवेदकी तो उदयादि गुरणश्र ेणिको करता है और छह नोकषायके कर्माशोकी उदयावलिके बाहर गुणश्रेणि करता है । बारहकषाय और सात नोकषायका गुण रिण निक्षेप प्रयुकर्म को छोडकर शेष कर्मोके गुणश्र णिनिक्षेपके तुल्य होता है । शेष - शेषमे निक्षेप होता है ग्रर्थात् गलितावशेष गुणश्रेणि होती है । उदयरूप पुरुषवेद और सज्वलनक्रोधके द्रव्य को अपकर्षित करके उदय समयसे लगाकर और अन्य कषाय व नोकषायके द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिसे बाहर समयसे लगाकर गुरणश्र णिश्रायाम, अन्तरायाम, द्वितीयस्थितिमे निक्षेप होता है और सात नोकषायका अन्तरायाम पूरण होजाता है । '
क्षपणासार
पुं संजल दिराणं वस्सा बत्तीसयं तु चउसट्ठी । संखेजसहस्सा णि य तक्काले होदि ठिदिबंधो ॥ ३२४॥
अर्थः- उतरनेवालेके पुरुषवेद के प्रथम समय मे पुरुषवेदका ३२ वर्ष, संज्वलन चतुष्कका ६४ वर्ष, तीन घातियाकर्मोंका संख्यातहजारवर्ष, उससे नाम व गोत्रका सख्यातगुणा तथा उससे डेढ़ गुणा स्थितिबन्ध वेदनीय कर्मका होता है ।
पुरसे दुवते इत्थी वसंतगोत्ति अाए । संखाभागासु गदे ससंखवस्तं श्रघादिठिदिबंधों ॥ ३२५॥ वरि य णामदुगां वीसियपडिभागदो हवे बंधो। तीपिडिभागेण य बंधी पुण वेयणीयस्स ॥ ३२६ ॥
अर्थ – पुरुषवेदके उदयकाल मे स्त्रीवेदका उपशम जबतक नष्ट नही होता उतनेकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होकर एकभाग अवशिष्ट रहनेपर अघातिया - कर्मोका स्थितिबन्ध असख्यातहजार वर्षमात्र होता है ।
इतनी विशेषता है कि बीसिय नामद्विक ( नाम - गोत्र ) का जितना स्थिति बन्ध होता है उसके त्रैराशिक क्रमसे अर्थात् ड्योढ़ा तीसिय- वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध १. जयधवल मूल पृ० १६०२ सूत्र ४५३ ॥