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क्षपरणासार
[ गाथा ३२-३३०
अब नपुंसक वेद के उपशमका विनाश व उससमय होनेवाली क्रिया विशेष २
गाथाओं मे कहते हैं
संडवसमे पढमे मोहिगिवीसाण होदि पुणसेढी । अंतरकदोत्ति मज्झे संखाभागासु तीदासु ॥ ३२६॥ मोहस्स असंखेजा वस्तपमाणा हवेज ठिदिबंधो । ता तस्य जाएं बंधं उदयं च दुट्ठाणं ॥ ३३०॥
अर्थः-नपुंसकवेद अनुपशान्त हो जानेपर २१ प्रकृतियोकी गुरणश्र ेणी होती है। यहासे अन्तरकरण करनेके स्थानको प्राप्त होनेतक जो मध्यवर्तीकाल है उसकाल के संख्यात बहुभाग बीत जानेपर मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध प्रसख्यातवर्षप्रमाण होने लगता है । उसीसमय मोहनीयकर्मका अनुभागबन्ध व उदय द्विस्थानीय हो जाता है । विशेषार्थः --- पूर्वोक्त गाथा कथितकालके पश्चात् सख्यात सहस्र स्थितिबन्धो के बीत जानेपर नपुंसकवेद अनुपशान्त हो जाता है । उसीसमय नपुंसकवेदके द्रव्यको ग्रपकर्षित करके उदयावलिके बाहर गुणश्रेणि आयाममे, अन्तरायाममे और द्वितीयस्थितिमे निक्षिप्त करता है । यह गुण रिण निक्ष ेप अन्य बीस प्रकृतियो के गलितावशेष गुणश्रेणि निक्षेपके सदृश होता है ।
नपु सकवेदके अनुपशान्त हो जानेपर जबतक अन्तर करनेके कालको नही प्राप्त होता इस मध्यवर्तीकालके सख्यात बहुभागप्रमारगकाल व्यतीत हो जानेपर मोहनीथकर्मका असख्यातवर्षवाला स्थितिबन्ध होने लगता है । उपशमश्रेणि चढनेवाला जिस स्थानपर ( अवस्थामे ) अन्तरकरण करके मोहनीयकर्मका- सख्यातवर्षवाला स्थितिबन्ध आरम्भ करता है, उतरते समय उस स्थानको अन्तर्मुहूर्त द्वारा नही प्राप्त करता कि इस अवस्थामे वर्तमान इस जीवके प्रतिपातकी प्रधानता से मोहनीय कर्मका असख्यातवर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ हो जाता है । क्योकि चढनेवाले की अपेक्षा उतरने वालेका काल स्तोक है, कारण कि चढनेवाले के सर्वकालोकी अपेक्षा उतरनेवाले के सर्वकाल हीन होते हैं जैसे चढनेवालेके सूक्ष्मसाम्पराय के कालसे उतरने वालेका मूक्ष्मसाम्परायकाल अन्तर्मुहूर्त हीन होता है । इसप्रकार चढ़ने और उतरने सम्बन्धी सर्वकालोमे परस्पर विशेष अधिकता व हीनता लगा लेनी चाहिए ।